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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहु [हिदिविहत्ती ३ णियमा अस्थि । अणंताणु०चउक० भुज०-अप्प०-अवट्ठि० णियमा अस्थि । अवत्तव्वं भयणिजा। सिया एदे च अवत्तव्वविहत्तिओ च, सिया एदे च अवत्तव्वविहत्तिया च । सम्मत्त ०-सम्मामि० अप्पदर० णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । एवं तिरिक्ख०कायजोगि०-ओरालिय०-णवूस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-किएह-णील-काउ.. भवसि०-आहारि त्ति । ६९९. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदर०-अवढि० णियमा अस्थि । [भुज० भयणिज्जा० ।] सिया एदे च भुजगारविहत्तिओ च, सिया एदे च भुजगारविहत्तिया च । अर्णताणु०चउक्क० अप्पद० अवढि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिजा। सम्मत्त-सम्मामि० ओघभंगो। एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय०-मणुसतिय०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज०मिथ्यात्व, बारह कपाय और नौ नाकषायोंका भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। प्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। कदाचित् ये भुजगारादि विभक्तिवाले बहुत जीव होते हैं और अवक्तव्यविभक्तिवाला एक जीव होता है। कदाचित् ये भुजगारादिविभक्तिवाले नाना जीव होते हैं और अवक्तव्य विभक्तिवाले नाता जीव होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। तथा शेष पदवाले जीव भजनीय हैं। इसी प्रकार तियच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले कपोतलेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय इन २२ प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद होते हैं जो सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये इनकी अपेक्षा एक ध्रवभंग ही होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके चार पद हैं जिनमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद ध्रुव हैं और अवक्तव्यपद अध्रुव है। अवक्तव्यपवाला कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित् नाना। अब इन दो भंगोंमें ध्रवभंग और मिला दिया जाता है तो अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा कुल तीन भंग प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्थात्वके चार पद हैं। जिनमें भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन भजनीय और एक अल्पतर ध्रुव है, अतः यहाँ कुल २७ भंग होते हैं, क्योंकि एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा तीन भजनीय पदोंके २६ भंग और उनमें एक ध्रुव भंगके मिलानेपर कुल २७ भंग होते हैं। तियच आदि मूलमें गिनाई गई कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। ६६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इनके भुजगार पदवाले जीव भजनीय हैं। कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक भुजगार स्थितिविभक्तिवाला जीव है। कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव हैं। अनन्तानु बन्धीचतुष्ककी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं तथा शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियेच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथेच यानिमती, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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