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________________ गा० २२ ] वित्तीय उत्तरपर्याडभुजगार भंगविचश्रो पंचमण० - पंचवचि ० - वेउच्चिय ० इत्थि ० पुरिस० चक्खु ० तेउ०- पम्म० सण्णि त्ति । $१००. पंचि०तिरि०अपज० मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० णारयभंगो | णवरि अनंताणु अवत्त० णत्थि । सम्म० सम्मामि० अप्प० णियमा अत्थि । एवं सच्चत्रिगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० - बादरपुढ विपज्ज० - बादरआउ० पज ० -बादरते उपज ० - बादरवाउपज ०- बादरवणफदिपत्तेय ० पञ्ज० तस अपज ० - विहंगणाणि ति । $ १०१. मणुस अपज० छब्वीसं पयडीणं सव्वपदा भयणिजा । भंगा छव्वीस; ध्रुवपदाभावादो । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमप्पदरं भयणिज्जं । भंगा दोण्णि, धुवाभावादो । एवं वेउव्विय मिस्स ० | I ५३ वाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनवाले, पीतलेश्यात्राले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जोवों के जानना चाहिए । विशेषार्थ – नरक में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके दो पद ध्रुव और एक पद भजनीय बतलाया है, अतः इनके ध्रुव भंगके साथ तीन भंग प्राप्त होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके चार पदोंमेंसे अल्पतर और अवस्थित ये दो पद ध्रुव तथा भुजगार और अवक्तव्य ये दो पद भजनीय बतलाये हैं, इसलिये इनके नौ भंग प्राप्त होते हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व जिसप्रकार ओघसे २७ भंग बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये । मूलमें सब नारी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाईं हैं उनमें उक्त व्यवस्था बन जाती है । $ १००. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा नारकियों के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति नहीं है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति कायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवों के जानना चाहिए । विशेषार्थ – पञ्चेन्द्रिय तिर्येच लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टिही होते हैं, उनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य भंग नहीं बनता । अतः इनके मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय इन सबके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद ही होते हैं । इनमें से दो पद ध्रुव और एक भुजगार पद भजनीय है, अतः कुल तीन भंग प्राप्त होते हैं । यहाँ नारकियों के समान कहनेका मत यह है कि जिसप्रकार नारकियोंके एक भुजगार पद भजनीय बतलाया उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियँच लब्ध्यपर्याप्तकों के भी जानना चाहिये । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा इनके एक अल्पतर पद ही पाया जाता है जो ध्रुव है, अतः इनकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग ही प्राप्त होता है । सब विकलेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहा । १०१. मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंके सत्र पद भजनीय हैं। भंग छब्बीस ही होते हैं, क्योंकि यहाँ ध्रुवपदका अभाव है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्यका अल्पतर पद भजनीय है। भंग दो होते हैं, क्योंकि ध्रुवपदका अभाव है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों के जानना चाहिए। विशेषार्थ - लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यह सान्तर मार्गणा है । अतः इसमें २६ प्रकृतियोंके तीनों पद भजनीय हैं जिनके कुल भंग २६ होते हैं । यहाँ ध्रुव पदका अभाव होनेसे ध्रुव भंगका निषेध किया है । यद्यपि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यहाँ एक अल्पतर पद ही है फिर भी सान्तर मार्गणा के कारण वह भी भजनीय है अतः उसके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग कहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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