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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारभंगविचओ
६ ९५. कुदो ? विसंजोइदअणंताणु० चउक्क० सम्माइट्ठीणं णिरंतरं मिच्छत्तगुणेण परिणमणाभावादो।
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवहिद-अवत्तवहिदिविहत्तिया भजिदव्वा ।
६६६. कुदो ? णिरंतरं सम्मत्तं पडिवजमाणजीवाणमभावादो। * अप्पदरहिदिविहत्तिया णियमा अस्थि ।
६७. कुदो? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियजीवाणं तीदाणागदवट्टमाणकालेसु विरहाभावादो।
९८, एवं जइवसहाइरियदेसामासियसुत्तत्थपरूवणं काऊण संपहि जइवसहाइरियसूचिदत्यमुच्चारणाए भणिस्सामो। णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिदेसोओघे० आदेसे० । ओघेण० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० भुज०-अप्पदर०-अवट्ठि.
६५. क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवोंका मिथ्यात्व गुणके साथ निरन्तर परिणाम नहीं पाया जाता।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं।
६६. क्योंकि, निरन्तर सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव नहीं पाये जाते हैं। * अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं।
६६७. क्योंकि, सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वसत्कर्मवाले जीवोंका अतीत अनागत और वर्तमान इन तीनों कालोंमें अभाव नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँपर भुजगार आदि पदोंका आलम्बन लेकर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग. विचयका विचार किया जा रहा है । मोहनीयके कुल भेद २८ हैं। उनमें से मिथ्यात्व, सोलह कषाय
और नौ नोकपायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदवाले नाना जीव निरन्तर पाये जाते हैं, यह स्पष्ट ही है, क्यों कि यथासम्भव मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर बन्ध सम्भव होनेसे ये बन जाते हैं। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्य पदकी यह स्थिति नहीं है। कारण कि जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें आता है उसीके यह पद सम्भव है पर ऐसे जीवोंका निरन्तर उक्त गुणस्थानोंको प्राप्त होना सम्भव नहीं है। कदाचित् एक भी जीव उक्त गुणस्थानोंका नहीं प्राप्त होता और कदाचित् एक जीव तथा कदाचित नाना जीव वात गुणस्थानोंका प्राप्त होते हैं, इसलिए अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्य पदवाले भजनीय कहे हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदवाले जीव तो सदा पाए जात प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि जीवोंकानिरन्तर सद्भाव पाया जाता है और उनके एक मात्र अल्पतर पद ही होता है पर इन प्रकृतियोंके शेष पद भजनीय हैं, क्योंकि शेष पद, जो मिथ्या. त्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं, उनके ही प्रथम समयमें सम्भव हैं और ऐसे जीव निरन्तर नहीं पाये जाते, अतः इन प्रकृतियोंके भुज़गार, अवस्थित और अवक्तव्य पदवाले जीव भजनीय कहे हैं।
६८. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके देशामर्षकसूत्रके अर्थका कथन करके अब यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित किये गये अर्थकी उच्चारणाका कथन करते हैं-नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आश्चनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा
किन
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