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________________ ૫૦ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवढि० ज० अंतोमु०, अप्पदर० ज० एगस०, अवत्तव्य० ज० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. सव्वेसिं सगढिदो देसूणा । तेउ. सोहम्मभंगो । पम्म० सहस्सारभंगो । असण्णि० एइंदियभंगो। णवरि छव्वीसपयडी० भुज-अवाहि० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आहारि० ओघं । णवरि जम्हि उबड्डपोग्गलपरियट्ट तम्हि अंगुलस्स असंखे०भागो। एवमंतराणुगमो समत्तो । * णाणाजीवेहि भंगविचरो $ ६२. सुगममेदं; अहियारसंभालणफलत्तादो। * संतकम्मिएसु पयदं । ६६३. कुदो १ असंतकम्मिएसु भुजगारादिपदाणमसंभवादो । * सव्वे जीवा मिच्छत्त-सोलकसाय-णवणोकसायाणं भुजगारहिदिविहत्तिया च अप्पदरहिदिविहत्तिया च अवहिदहिदिविहत्तिया च । ६ ९४. एदेसिं कम्माणं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदहिदिविहत्तिया सव्वे जीवा ते णियमा अस्थि ति संबंधो काययो । * अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं भजिदव्वं । भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । पीतलेश्यामें सौधर्मके समान भंग है। पद्मलेश्यामें सहस्रारके समान भंग है। असंज्ञियोंमें एकेन्द्रियों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आहारकोंके ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण अन्तर कहा है वहाँ इनके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर कहना चाहिये । इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * अब नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका अधिकार है। ६२. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल अधिकारकी सम्हाल करना है । * सत्कर्मवाले जीवोंका प्रकरण है। ६६३. शंका-सत्कर्मवाले जीवोंमें ही इस अधिकारकी प्रवृत्ति क्यों होती है ? समाधान-क्योंकि जिन जीवोंके मोहनीयकर्मकी सत्ता नहीं है उनमें भुजगारादि पदोंका पाया जाना सम्भव नहीं है। ___ * मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगारस्थिति विभक्तिवाले, अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले सब जीव नियमसे हैं। SE४. इन पूर्वोक्त कर्मोंकी भुजगार, अल्लतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जो सब जीव हैं वे नियमसे हैं ऐसा यहाँ सबन्ध करना चाहिये। * अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद भजनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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