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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतर ४६ दर० ज० एगस०, उक्क० पणवण्ण पलिदो० देसूणाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सगद्विदी देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवढि० ज० अंतोमुहुत्तं, अप्पदर० ज० एगसममो, अवतव्व० ज० पलिदो० असंखे०भागो, उक० सव्वेसि पि सगट्टिदी देसूणा। णवंस० मिच्छत्त० सोलसक०-णवणोक. भुज० अवढि० ज० एगसमो, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि | अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि अणंताणु०चउक्क० अप्पदर० ज० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । एबमसंजद० । $ ९०. मदि०सुद० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज०-अवढि० ज० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । अप्पदर० ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० णत्थि अंतरं । एवं मिच्छादिट्ठीणं । अभव० छन्वीसं पयडीणमेवं चेव । ६१. किण्ह०-णील०-काउ० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. भुज-अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगढिदी देसूणा । अप्पदर० ओघं। अणंताणु०च उक्क० भुज०-अवहि. ज० एगस०, अप्पदर ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं सगहिदी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। नपंसकवेदियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत जीवोंके जानना चाहिए। ६६०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका इसी प्रकार जानना चाहिये। ६ ९१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थिातप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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