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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसणियासो रही सम्यक्त्वके अल्पतर पदको मुख्य मानकर सन्निकर्षके विचार करनेकी बात सो ऐसी अवस्थामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पद सम्भव हैं कारण स्पष्ट है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर पद ही होता है । तथा जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा कर ली है उसके सम्यक्त्वका अल्पतरपदके रहते हुए उक्त प्रकृतियोंका अभाव भी होता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी क्षपणा सबके अन्त में होती है, इसलिये सम्यक्त्वके रहते हुए भी इनका अभाव हो जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्वको मुख्य मानकर सन्निकर्षका विचार किया। अब यदि सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्य मानकर सन्निकका विचार किया जाता है तो यही स्थिति प्राप्त होती है। किन्तु कुछ विशेषता है। बात यह है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना पहले हो जाती है और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना उसके बाद होती है। तथा ऐसे समयमें दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थिति ही होती है । अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थिति के समय सम्यक्त्वकी सत्ता होती भी है और नहीं भीहोती है। यदि सत्ता होती है तो अल्पतर स्थिति ही पाई जाती है। तथा जिसने सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर ली है उसके सम्यक्त्व की उद्वेलना पहले हो जाती है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिमें सम्यक्त्वकी नियमसे अवक्तव्य स्थिति होती है। अब सम्यक्त्वको मुख्य मानकर उक्त विशेषताओंका ज्ञापक कोटक देते हैं सम्यक्त्व भुजगार अवस्थित प्रवक्तव्य अल्पतर भुजगार या सम्यग्मिथ्यात्व नहीं है, यदि है भुजगार अवस्थित अवक्तव्य तो अल्पतर नहीं है यदि है तो मिथ्यात्व अल्पतर अल्पतर अल्पतर भुजगार, अल्पर और अवस्थित नहीं है, यदि है तो अनन्तानुबन्धी अल्पतर अल्पतर अल्पतर चारों पद १२ कषाय और अल्पतर भुजगार, अल्पतर अल्पतर अल्पतर ६ नोकषाय ___ और अवस्थित अब सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्य मानकर उक्त विशेषताओंका ज्ञापक कोष्टक देते हैं सम्यग्मिथ्यात्व भुजगार अवस्थित अवक्तव्य अल्पतर सम्यक्त्व भुजगार अवस्थित अवक्तव्य मिथ्यात्व अल्पतर अल्पतर अल्पतर नहीं है यदि है तो अल्पतर नहीं है यदि है तो तीनी पद नहीं है, यदि है तो ___ चारों पद अनन्तानुबन्धी अल्पतर अल्पतर अल्पतर १२ कषाय और ६ नोकषाय अल्पतर अल्पता अल्पतर तीनों पद -- - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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