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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ १६८. अणंताणुकोध० जो भुजगारविहत्तिओ सो मिच्छत्त-पण्णारसक० णवणोकसायाणं सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया अबढिदविहत्तिओ। समत्त-सम्मामिच्छत्तागि सिया अस्थि सिया णस्थि । जदि अत्थि णियमा अप्पदरविहत्तिओ। एवमवद्विदस्स वि वत्तव्यं । अणंताणु०कोध० अवत्तव्यस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तबारसक०-णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ। तिण्हं कसायाणं णियमा' अवत्तव्यविहत्तिओ । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ। अणंताणु०कोध० जो अप्पदरविहत्तिओ सो मिच्छत्त-पण्णारसक०-णवणोकसायाणं सिया भुज० अप्पदर० अवडिदविहत्तिओ। सम्म०-सम्मामि० सिया विह० सिया अविह० । जइ विहत्तिओ सिया भुज० अप्पद० सिया अवढि० सिया अवत्तव्यविहत्तिओ। एवमणंताणु०माण माया-लोहाणं । एवं बारसक० णवणोकसायाणं। णवरि एदेसिमप्प० विह० मिच्छ०-अणंताणु ४ अविहत्तिओ वि। अणंताणु०४ अवत्तव्व० मिच्छत्तणेच णेदव्वं । एवं च खवगोवसमं सेढिविवक्खमकादण वुत्तं। तधिवक्खाए पुण अण्णो वि विसेसो अत्थि सो जाणिय णेदव्यो। ६१६८. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जो भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगारस्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है। इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो वह उनकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार अवस्थित स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जो अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी नियमसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी कदाचित् स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला, कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला और कदाचित् श्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी अपेक्षा जानना चाहि प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क की अविभक्ति भी होती है और इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये। इस प्रकार क्षपक और उपशमश्रेणीकी विवक्षा न करके यह कथन किया है। उनकी विवक्षा करने पर तो और भी विशेषता है सो जानकर कहना चाहिये। विशेषार्थ—पहले मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंको मुख्य मानकर सन्निकर्षका विचार किया। इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषताको जानकर अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियोंको मुख्य मानकर १ ता. प्रतौ -याणं पि णियमा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Olly www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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