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________________ ८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मत्तस्स अवडिद-अवत्तव्वाणं पि सण्णियासो कायव्यो। णवरि सम्मत्तस्स जो अबाहिदविहत्तिओ सो सम्मामिच्छत्तस्स वि णियमा अवद्विदविहत्तिओ। जो सम्मत्तस्स अबत्तव्वविहत्तिओ सो सम्मामिच्छत्तस्स सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अवत्तव्यविहत्तिओ। सम्मत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ सो मिच्छत्त-सोलसक० णवणोकसायाणं सिया भुज० सिया अप्पद० सिया अवट्टि विहत्तिओ। अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्वस्स सिया विहत्तिओ । सम्मामि० णिय. अप्पदरविहत्तिओ । णवरि मिच्छत्त-सम्मामि० -अणंताणु०४ सिया अविहत्तिओ वि । एवं सम्मामिच्छत्तस्स' वि सण्णियासो कायव्यो। णवरि सम्मामि० जो अप्पदरसंतकम्मिओ सो सम्मत्तस्स सिया संतकम्मिओ । सम्मामिच्छत्तस्स जो अवत्तव्यविहत्तिओ सो सम्मत्तस्स णियमा अवत्तव्यविहत्तिओ। स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार सम्यक्त्वके अवस्थित और अवक्तव्य पदोंका भी सन्निकर्प करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जो सम्यक्त्वकी अवस्थितस्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यग्मिथ्यात्वकी भी नियमसे अवस्थितस्थितिविभक्तिवाला है। तथा जो सम्यक्त्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यग्मिथ्यात्वकी कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। तथा जो सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगार स्थिातविभक्तिवाला है, कदाचित अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी कदाचित् अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाला भी है और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। किन्तु इतनी विशेषता है कि वह जीव कदाचित् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके सत्कमसे रहित भी है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो सम्बग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्वसत्कर्मवाला है और कदाचित् उससे रहित है। तथा जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है वह नियमसे सम्यक्त्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। विशेषार्थ-अब सम्यक्त्वके भुजगार आदि पदोंको मुख्य मानकर संयोगका विचार करते है । सम्वक्त्वक भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यपद सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें होते हैं। किन्तु इस समय मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका एक अल्पतर पद ही होता है क्योंकि विशुद्धिके कारण उक्त प्रकृतियोंकी उत्तरोत्तर अल्प स्थिति हाती जाती है । अतः सिद्ध हुआ कि सम्यक्त्वके उक्त तीन पदोंमें मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नो कषायोंका एक अल्पतर पद होता है। अब रही सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सो इसका वही पद होता है जो सम्यक्त्वका होता है। अर्थात् सम्यक्त्वके भुजगारमें सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार पद होता है । सम्यक्त्वके अवस्थित पदमें सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपद होता है और सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदमें सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्य पद होता है। किन्तु इसका एक अपवाद है। बात यह है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना हो जानेपर भी सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व बना रहता है। अब यदि ऐसे जीवने सम्यक्त्वको प्राप्त किया तो उसके सम्यक्त्वक अवक्तव्य पदमें सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार पद भी बन जाता है। इसलिये सिद्ध हा कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदमें सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्य और भुजगार ये दो पद होते हैं। अब १ ता० प्रती सम्मत्तसम्मा- मिच्छ स्स इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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