SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहन्ती ३ कालस्स साहारणत्तादो । एदं कुदो णव्वदे ? तिष्णिवड्डि-तिष्णिहाणि - अवट्ठाणाणं कालो जह० एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखे ० भागमे तो ति महाबंधसुत्रोण भणिदत्त दो । ण त आवलि० असंखे० भागमेत्तेण अवत्तव्वस्स संचओ अस्थि, जहण्णुकस्सेण एगसमयसंचिदत्तादो । * असंखेज्जभागहाणिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ६ ५८०. कुदो, सगअसंखे ० भागेणूणसम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियाणं सव्वेसि पि गहणादो । * तारबंधणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया । $ ५८१. कुदो ? अनंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय मिच्छत्तं पडिवजमाणजीवाणं गहणादो । * संखेञ्जगुणहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । $ ५८२. कुदो ? संखेज्जसमयसंचिदत्तादो । अवत्तव्यविहत्तिया एगसमयसंचिदा ए समय संचिदअसंखे० गुणहाणिकम्मंस्सिया सरिसा । दंसणमोहणीयं खवेमाणसंखेज्जजीवेहि ऊत्तस्स अविवक्खाए असंखेज्जगुणहाणिट्ठिदिकंडयाणं पदणवारा जेण संखेज्जसहस्समेत्ता तेण तत्थ संचिदजीवा वि संखे० गुणा त्ति सिद्धं । एगसमएण समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले सभी के यह काल साधारण है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है इस प्रकार महाबन्धके सूत्र में कहा है, इससे जाना जाता है । और आवलिके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा अवक्तव्यविभक्तिवालोंका संचय नहीं होता, क्योंकि उनके संचित होनेका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । * असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । ५८०. क्योंकि जितने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसत्कर्मवाले जीव हैं उनमें से असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंको कम करके शेष सभी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मवाले जीवोंका ग्रहण किया है । अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । ६५८१. क्योंकि यहां अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका ग्रहण किया है । असंख्यातगुणहानिकर्म वाले जीव संख्यातगुणे हैं । ५८२. क्योंकि उनके संचित होनेका काल संख्यात समय है । अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव एक समयके द्वारा संचित होते हैं जो एक समय में संचित हुए असंख्यातगुणहानिवालोंके समान हैं । दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले संख्यात जीवोंसे रहितपनेकी विवक्षा न करनेपर चूंकि असंख्यातगुणहानिस्थितिकाण्डकोंके पतन होने के बार संख्यात हजार हैं, इसलिये वहां संचित हुए जीव भी संख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ । इसका यह भावार्थ है कि एक समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy