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________________ २९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ संचओ णत्थि त्ति णासंकणिजं, सव्वत्थुक्कस्संतरस्स संभवाभावेण अवलि० असंखे ०भागमेत्तंतरेण वि संचयस्सुवलंभादो | ण च चउवीसअहोरत्तमेत्तो चेव अंतरकालो ति णियमो अत्थि, एगसमयमादि काढूण एगुत्तग्वड्डीए गंतॄण उकस्सेण सादिरेगचउवीस अहोरत्तमेत्तंतरस्स परूविदत्तादो | जम्हा असंखे ० भागवड्ढि विहत्तिया अंतोमुहुरा कालसंचिदा तम्हा पलिदो० असंखे ० भागमे तकालसंचिद असंखे० गुणवड्डिविहत्तिया असंखे० ० गुणा त्तिसिद्धं । * संखेज्जगुणवडिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । $ ५७५. कुदो ? पलिदो ० संखे० भागेणूणसंखे ० सागरोवममेत्त धुवट्ठिदीए उवेल्लणकालसंचिदत्तादो तं जहा — धुवट्ठिदीए हेहिमअसंखे० भागो असंखे० गुणडिविसओ उवरिमो भागो सव्वो वि संखेज गुणवड्ढिविसओ, संखे०सागरोवममेाधुवट्ठिदिं बंधिदूण धुव हिदीए अब्भंतरहिदसम्मत्त संतकम्मिएण सम्मत्ते गहिदे संखे० गुणवड्ढिदंसणादो। एदेसिं संखेज्जसागरोवमाणमुव्वेल्लणकालो पलिदो० असंखे० भागमेत्तो । पलिदो ० असंखे ०भागाया मेगुव्वेल्लणकंडयस्स जदि अंतोमुहुत्तमेत्ता उक्कीरणद्धा लब्भदि तो संखे० सागरोवमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदो० असंखे० भागमेत्तुब्वेल्लणकालुवलंभादो। एसो कालो असंखे० गुणवडिउव्येण कालादो संखेrगुणो । एदग्हि काले संचिदजीवा असंखे ० गुणवड्ढिकालसंचिदजीवेहिंतो संखेजहोता है यदि कोई ऐसी आशंका करे तो उसकी ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वत्र उत्कृष्ट अन्तर संभव नहीं होने से आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरके द्वारा भी पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंका संचय पाया जाता है । और चौबीस दिनरात प्रमाण अन्तर काल होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि एक समयसे लेकर उत्तरोत्तर एक-एक समय बढ़ाते हुए उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात कहा है । चूंकि असंख्यात भागवृद्धि विभक्तिवाले जीव अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संचित होते हैं, इसलिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा संचित हुए असंख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं यह सिद्ध हुआ । * संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । $ ५७५. क्योंकि इनका संचय पल्यके संख्यातवें भाग कम संख्यात सागरप्रमाण ध्रुवस्थितिके उनका द्वारा होता है । खुलासा इस प्रकार है- ध्रुवस्थितिके नीचेका असंख्यातवां भाग असंख्यात गुणवृद्धिका विषय है । तथा सब उपरिम भाग भी संख्यातगुणवृद्धिका विषय है, क्योंकि संख्यात सागरप्रमाण ध्रुवस्थितिको बांधकर ध्रुवस्थितिके भीतर स्थित हुए सम्यक्त्व सत्कर्मवाले जीवके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर संख्यातगुणवृद्धि देखी जाती है। इन संख्यात सागरोंका उद्वेलन काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा पल्यके असंख्यातवें भाग आयामवाले एक उद्वेलनाकाण्डकका यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरणाकाल प्राप्त होता है तो संख्यातसागरका कितना उत्कीरणाकाल प्राप्त होगा इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकाल प्राप्त होता है । शंका- यह काल असंख्यातगुणवृद्धि के उद्वेलनाकालसे संख्यातगुणा है । और इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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