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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं
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गुणा । असंखेज्जगुणवड्डिपाओ गडिदिउध्वेल्ल णकालसंचिदजीवेहिंतो संखे० गुणवड्डिपाओग्गड्डि दिउब्वेल्लणकालसंचिदजोवेसु संखेजगुणेसु संतेसु कथमसंखेअगुणवड्डि वित्तहिंतो संखे गुणवड्ढिविहत्तियाणमसंखेञ्जगुणत्तं ? ण एस दोसो, असंखेज्जगुणवड्डिपाओग्गद्विदिं धरेण द्विदजीवेसु सम्मत्तं पडिवजमाणेहिंतो संखेअगुणवड्डिपाओग्गडिदिं धरेण सम्मत्तं पडिवजमाणाणमसंखेञ्जगुणत्तादो । तं पि कुदो ? सम्मत्तं घेतूण मिच्छतं पडिवज्जिय बहुअं कालं मिच्छत्तेणच्छिदेहिंतो सम्मत्तं गेण्हमाणा सुट्टु थोबा, पणद्वसंसकारत्तादो । अवरे बहुआ, अविणट्टसंसकारत्तादो । एदं कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चैव सुत्तादो । जहा कम्मणिञ्जरामोक्खेण आसण्णा कम्मपरमाणू अविणहसं सकारत्तादो कम्मपोग्गलपरियदृब्भंतरे लहुँ कम्मभावेण परिणमंति तहा सम्मत्तादो मिच्छत्तं गदजीवा वि थोवमिच्छत्तद्धाए अच्छिदुण सम्मत्तं पडिवजमाणा बहुआ ति घेत्तव्वं । अथवा सण्णिपंचिंदियमिच्छाइट्टिणो मिच्छत्तं धुवट्ठिदीदो उचरिं ठविदसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मिया एत्थ पहाणा, तेसिं चेव बहुलं सम्मत्तग्गहणसंभवादो । मिच्छत्तधुवट्टिदीदो उवरिमट्ठिदीसु अट्ठावीससंत कम्मियमिच्छादिहीणमच्छणकालो
कालमें संचित हुए जीव असंख्यातगुणवृद्धिके काल द्वारा संचित हुए जीवोंसे संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थितिके उद्वेलनाकालमें संचित हुए जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धि के योग्य स्थितिके उद्वेलनाकालमें संचित हुए जीव संख्यातगुणे रहते हुए असंख्यात - गुणवृद्धिविभक्तिवालों से संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थिति में रहनेवाले जीवों में से सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जोवोंसे संख्यातगुणवृद्धि के योग्य स्थितिको प्राप्त करके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।
शंका- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान—–—सम्यक्त्वको ग्रहण करके जो जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुए हैं वे यदि बहुत काल तक मिथ्यात्व में रहते हैं तो उनमेंसे सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीव बहुत थोड़े होते हैं, क्योंकि उनका संस्कार नष्ट हो गया है । पर दूसरे अर्थात् मिथ्यात्वमें जाकर पुनः अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव बहुत होते हैं, क्योंकि उनका संस्कार नष्ट नहीं हुआ है ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — इसी सूत्र से जाना जाता है। जिस प्रकार कर्मनिर्जराके द्वारा मुक्त होकर समीपवर्ती कर्म परमाणु अविनष्ट संस्कारबाले होनेसे कर्मपुद्गल परिवर्तनके भीतर अतिशीघ्र कर्मरूपसे परिणत होते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्वसे मिथ्यात्व में गये हुए जीव भी थोड़े काल तक मिथ्यात्वमें रहकर सम्यक्त्वको प्राप्त होते हुए बहुत होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अथवा मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसे जिनकी सम्यक्त्वकी स्थिति अधिक है ऐसे संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव यहाँ प्रधान हैं, क्योंकि उन्हींका प्रायः कर सम्यक्त्वका ग्रहण करना संभव है । मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसे उपरिम स्थितियोंमें अट्ठाईस सत्कर्मवाले मिथ्या
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