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________________ २९८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पलिदो० असंखे०भागमेत्तो। तत्थ एगेगजीवस्स संखेजगुणवहीए बंधवारा असंखेजा । अंतोमुत्तम्मि जदि एगो संखेजगुणवहिवारो लब्भदि तो पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेजवारुवलंभादो। असंखे०गुणवडीए पुण सव्वे जीवा एगवारं चेव पाओग्गा होंति तेण असंखेजगुणवढिविहत्तिएहितो संखेजगुणवडिविहत्तिया असंखेजगुणा । 8 संखेजभागवडिकम्मंसिया संखेजगुण। ६५७६. अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठीसु संखेजवारं संखेजभागवढि कादूण सई मिच्छत्तसंखेजगुणवहिकरणादो। संखेजगुणवर्हि बहुबारं किण्ण कुणंति ? ण, तिव्वसंकिलेसेण पउरं परिणमणसत्तीए अभावादो। सम्मत्तहिदिसंतादो संखेजगुणमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मिएहितो संखेजभागब्भहियमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिया जेण संखेजगुणा तेण संखेजगुणवहिसंतकम्मिएहितो संखेजभागवह्रिसंतकम्मिया संखेजगुणा त्ति सिद्धं । मिच्छत्तधुवट्ठिदिसमाणसम्मत्तहिदिसंतादो हेट्टिमट्ठिदीहि सह सम्मत्तं गेण्हमाणेसु संखे भागवढिविहत्तिएहितो संखेजगुणवढिविहत्तिया बहुआ, असंखेजगुणवडिपाओग्गहिदीणं बहुत्तादो संखेजभागवडिपाओग्गहिदीसु एगजीवस्सच्छणकालं पेक्खिदूण संखेजगुणवहिपाओग्गहिदीसु अच्छणकालस्स बहुत्तादो वा। तेण संखेजदृष्टियोंके रहनेका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और वहाँ एक एक जीवके संख्यातगुणवृद्धिके बन्धवार असंख्यात हैं। इस प्रकार यदि अन्तर्मुहूर्तकालमें एक संख्यातगुणवृद्धि बार प्राप्त होता है तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर कितने बन्धवार होंगे इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर असंख्यातबार प्राप्त होते हैं। परन्तु सब जीव असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य एक बार ही होते हैं, इसलिये असंख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। * संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६५७६. क्योंकि अट्ठाईस सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीव संख्यात बार संख्यातभागवृद्धिको करके एक बार मिथ्यात्वकी संख्यातगुणवृद्धिको करते हैं। शंका–संख्यातगुणवृद्धिको बहुत बार क्यों नहीं करते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीव्र संक्लेशके कारण प्रचुरमात्रामें परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है। सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे संख्यातगुणे मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मवाले जीवोंकी अपेक्षा संख्यातभाग अधिक मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मवाले जीव चूँकि संख्यातगुणे हैं, अतः संख्यातगुणवृद्धिसत्कर्मवाले जीवोंसे संख्यातभागवृद्धिसत्कर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ। शंका-मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके समान सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे नीचेकी स्थितियोंके साथ सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंमें संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव बहुत हैं, क्योंकि असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थितियाँ बहुत हैं अथवा संख्याभागवृद्धिके योग्य स्थितियोंमें एक जीवके रहनेके कालको देखते हुए संख्यातगुणवृद्धि के योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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