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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ s ११६. एइदिए मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० भुज० - अवट्ठि अप्पदर० ओघं । सम्मत्त सम्मामि० अप्पदर० ओघं । एवं बादर-सुहुमेइं दिय-पज्जत्तापज्जत्त-पुढवि० - बादरपुढवि अपज्ज० - सुहुम पुढ वि-पज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउअपज्ज० सुहुम आउपज्जत्तापज्जत्त ० - तेउ० - बादरतेउ० अपज्ज० मुहुमते उपज्जता पज्जत वाउ०- बादरवाउअपज्ज० - सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त- बादरवणष्फदिप त्तेय सरीरपज्ज० वणष्कदि ० णिगोद० - बादर सुहुम पज्जत्ता पज्जत' ओरा लिय मिस्स ० कम्मइय० मदि० सुद० -मिच्छादि ० असण्णि० आहारि ति । $ ११८. अगद० सव्वपयडि० अप्प० लोग० असंखे ० भागे । एवमकसा० । अभवसि ० छव्वीसपयडीणं मदि० भंगो | एवं खेत्ताणुगमो समत्तो । ११८. पोसणागमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ६० - $ ११६. एकेन्द्रियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नाकषायोंकी भुजगार, अवस्थित और अल्पतरु स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान है। इसी प्रकार बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अभिकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । ११७. अपगतवेदियों में सब प्रकृतियों की अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । इसी प्रकार अकषायी जीवोंके जानना चाहिए । अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा मत्यज्ञानियोंके समान भंग है । विशेषार्थ - ओघ से मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी भुजगार, अवस्थित और अल्पतर स्थितिवाले जीव अनन्त हैं और ये सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनका क्षेत्र सब लोक कहा । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदवाले जीव श्रसंख्यात होते हुए भी स्वल्प हैं, अतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । यह व्यवस्था तिर्यंचगति आदि मूलमें गिनाई हुई मार्गणाओं में बन जाती है, अतः इनके कथनको ओघ के समान कहा । आदेशसे जिस मार्गणावाले और उसके अवान्तर भेदोंका जितना क्षेत्र है उसमें २६ प्रकृतियोंके सम्भव पदवालोंका उतना क्षेत्र कहा । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा सर्वत्र सम्भव पदवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र सर्वत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ । $ ११८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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