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________________ गा० २२ ] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारपोसणं ६१ O मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० तिन्हं पदाणं विहत्तिएहि केवडियं खेत्तं पो सिदं ? सव्वलोगो । अणंताणु ० चउक० एवं चैव । णवरि अवत्तव्व० लोग० असंखे ० भागो अह चोदसभागा वा देखणा । सम्मत्त० सम्मामि० अप्पदर० के० खे० पो० ? लोग असंखे० भागो पोसिदो अट्ठ चोद्दस • देखणा सव्वलोगो वा । सेसविहत्तिएहि केव० ? लोग० श्रसंखे० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । एवं कायजोगि०- चत्तारिकसा० - असंजद०श्रचक्खु ० भवसि ० - आहारिति । ० $ ११९. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त ० - बारसक० णवणोक० तिन्हं पदाणं विहत्ति ० लोग० असंखे० भागो छ चोदस देणा । अणंताणु० चउक्क० एवं चैव । णवरि उनमें से की अपेक्षा मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोकका स्पर्श किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ - ओघ से मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अवस्थित और अतर स्थितिवाले जीव अनन्त हैं और ये सब लोकमें पाये जाते हैं अतः इनका स्पर्श सब लोक कहा । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि वर्तमान काल में जिन्होंने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसे जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व में जानेवाले बहुत ही थोड़े हैं । तथा अतीत कालीन स्पर्श स नालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग है, क्योंकि यद्यपि ऊपर नौवें ग्रैवेयक तकके और नीचे सातवें नरक तकके जीव अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थितिको करते हुए पाये जाते हैं । परन्तु उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग ही है । किन्तु इस पद युक्त देवोंका विहारवत् स्वस्थान त्रस नालीके आठवटे चौदह भाग है अतः इनका अतीत कालीन स्पर्श त्रस नालीके कुछ कम आठबटे चौदह भाग प्रमाण कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका स्पर्श तीन प्रकार से बतलाया है । इनमें से लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्श वर्तमान काल की अपेक्षा बतलाया है | कुछ कम आठवटा चौदह भाग प्रमाण स्पर्श विहार आदि पदोंकी अपेक्षासे बतलाया है । और सब लोक स्पर्श मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है । तथा शेष पदोंकी अपेक्षा जो लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्श बतलाया है वह वर्तमान कालकी प्रधानता से बतलाया है और कुछ कम आठवटा चौदह राजु प्रमाण स्पर्श अतीत कालकी अपेक्षा बतलाया है । यहाँ कुछ और मार्गणाएं गिनाई हैं जिनका स्पर्श ओघ के समान प्राप्त होता है, अतः उनके कथनको ओघ के समान कहा । जैसे काययोगी आदि । § ११६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों के तीन पदवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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