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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अवत्तव्व० खेत्तभंगो। सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पदर० लोग० असंखे भागो छ चोदस० देसूणा। सेस० लोग० असंखे०भागो। पढमाए खेत्तभंगो। विदियादि जाव सत्तमि ति णिरयोघो । णवरि सगपोसणं कायव्वं । तिरिक्ख० ओघं । णवरि अट्ठ चोद्दस भागा त्ति णस्थि । एवमोरालिय०-णस०-तिण्णिलेस्सा त्ति ।
१२०. पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज-पंचिंतिरि०जोणिणी० मिच्छत्त०सोलसक०-णवणोक० सव्वपदाणं वि० के० खे० पो० १ लोग० असंखे भागो सबलोगो वा। णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० इत्थि०-पुरिस० भुज० अवढि० खेत्तभंगो। सम्म०-सम्मामि० अप्पदर० मिच्छत्तभंगो । सेस. खेत्तभंगो। एवं मणुसतिय० । पंचिंदियतिरिक्ख० अपज्ज० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० तिण्णिपदा० प्रमाण क्षेत्रका स्पश किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यका भंग क्षेत्रके समान है । सम्यक्त्व और सम्बग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमसे कुछ कम छहभाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा शेष स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । पहली पृथिवी में स्पर्शका भंग क्षेत्रके समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं तक सामान्य नारकियोंके समान स्पर्श है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्श कहना चाहिये। तियंचोंमें ओषके समान स्पर्श है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आठबटे चौदह भाग यह विकल्प नहीं है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी और कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । ... विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छहबटे चौदह राजु प्रमाण बतलाया है। वह यहाँ सब प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा बन जाता है। किन्तु इसके दो अपवाद हैं। एक तो अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्य पदकी अपेक्षा यह स्पर्श नहीं प्राप्त होता, क्योंकि ऐसे जीव मारणान्तिक समुद्धात या उपपाद पदसे रहित होते हैं। इसलिये उनके लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्श पाया जाता है। दूसरे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदको छोड़कर शेष पदोंकी अपेक्षा भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्श प्राप्त होता है। कारण वही है जो अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्य भंगके सम्बन्धमें बतलाया है। प्रथमादि नरकोंमें भी इसीप्रकार अपने अपने स्पर्शको जानकर कथनकर लेना चाहिये । यद्यपि तियंचोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा ओघके समान स्पर्श बन जाता है किन्तु यहाँ कुछ कम
आठबटे चौदह राजु स्पर्श नहीं प्राप्त होता, क्योंकि यह स्पर्श देवोंकी प्रधानतासे बतलाया है परन्तु तिर्यञ्चोंमें देव सम्मिलित नहीं हैं । औदारिककाययोग आदि मार्गणाओं में भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये।
६१२०. पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालोंका तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका भंग मिथ्यात्वके समान है और शेषका भंग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सामान्य, पयोप्त और मनुयिनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय
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