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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारखेत्तं णाणि त्ति । अभव० छव्वीसपयडि० मदिभंगो। एवं परिमाणाणुगमो समत्तो। $ ११४. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त. बारसक०-णवणोक० तिण्णिपदा केवडि खेत्ते ? सबलोगे। अणंताणु० चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्त० लोगस्स असंखे भागे। सम्मत्त०-सम्मामि० सव्वपदा० लोग० असंखे०भागे। एवं तिरिक्ख०-कायजोगि०-ओरालिय०-णqस०-चत्तारिक०-असंजद०. अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०आहारि ति । ११५. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडी०सव्वपदा के०१ लोग० असंखे भागे। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-सव्वमणुस०-सव्वदेव०-विगलिंदिय-सव्वपंचिंदियबादरपुढविपज्ज० बादरभाउपज्ज० बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्ज०-सव्वतस०-पंचमण०-पंचवचि.-वेउव्विय०-वेउ-मिस्स०- आहार-आहारमिस्स०इत्थि०-पुरिस०-विहंग-आभिणि सुद०-ओहि०-मणपज्ज० -संजद०-सामाइय-छेदो०परिहार०-सुहम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदंस०-तिण्णिले-सम्मादिढि०खइय०-वेदय-उवसम-सासाण ० सम्मामि०-सण्णि ति। णवरि बादरवाउपज्जत्त. सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदरवज्जं लोग० संखे०भागे। जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा मत्यज्ञानियों के समान भंग है। इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६११४. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओ घनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा इसीप्रकार जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुसकवेदवाले, क्रोधादिचारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६११५. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतिथंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रस, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले. पीत आदि तीन लश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादरवायुकायिकपर्याप्तक जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंको छोड़कर शेष पदवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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