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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो मुद्दुत्तं । एवं मणुसअपज्ज० । णवरि छन्वीसं पयडीणं भुज० ज० एयस०, उक० वे समया सत्तारस समया। ५६. मणुसतिए मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक. भुज. ज. एयस०, उक. वेसमया सत्तारस समया । सेसं पंचिं०तिरिक्खभंगो। णवरि मणुसपज्ज० वारसक०णवणोक० अप्प० जह० एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि पुवकोडितिभागेण । ५७. देवाणं णारयभंगो। णवरि मिच्छत्तस्स सम्मत्त०-सम्मामि०-सोलसक०णवणोक० अप्प० ज० एयस०, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि । भवण-वाण एवं चेव । णवरि अप्पदर० सगट्टिदी देसूणा । जोदिसियादि जाव सहस्सारोत्ति विदियपुढविभंगो। प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा दो समय तथा शेषकी अपेक्षा सत्रह समय है। $ ५६. सामान्य, पर्याप्त और मनुष्य इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा दो समय तथा शेषकी अपेक्षा सत्रह समय है। तथा शेष भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकों में बारह कषाय और नोकषायों की अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पूर्वकोटित्रिभागसे अधिक तीन पल्य प्रमाण है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंकी आयु अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होती, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत कहा । तथा इनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल अठारह समय प्राप्त न होकर सत्रह समय ही प्रान होता है। इसका विशेष खुलासा जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तियच आदिके कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है। मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकोंके यद्यपि सब प्रकृतियोंकी भुजगार आदि स्थितियोंका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान ही होता है फिर भी छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि मनुष्योंमें संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद नहीं होते, अतः इनके मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल दो समय और सोलह कषाय तथा नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय ही प्राप्तहोता है। उक्त प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिके उत्कृष्ट कालके विषयमें यही कारण सामान्य, पर्याप्तक और योनिमती मनुष्योंके जानना चाहिये । इन तीन प्रकारके मनुष्योंका शेष कथन पंचेन्द्रिय तियचोंके समान है किन्तु मनुष्य पर्याप्तकोंके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि जिस मनुष्य पर्याप्तकने आगामी भवकी आयुको बाँधकर तदनन्तर क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है उसके मनुष्य पर्याप्तक अवस्थाके रहते हुए उक्त कालतक अल्पतर स्थिति देखी जाती है। ६५७. देवोंमें नारकियोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषयोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँपर अल्पतरस्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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