SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कासयपाहुडे [ट्ठिदिविहत्ती ३ सक०-णवणोक. भुज० ज० एगस०, उक० तिण्णि समया अट्ठारस समया । सेसं तिरिक्खोघं । णवरि पंचिं०तिरि०पज्ज. इत्थिवेद० भुजगार० जह• एगस०, उक्क० सत्तारस समया । जोणिणि पुरिस०णवूस० मुज० ज० एगस०, उक० सचारस समया । ६५५. पंचिंतिरि०अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क. अंतोप्नु० । सेसं पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि इस्थि-पुरिस० ज० एयस०, उक्क० सचारस समया। सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतो. मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा तीन समय और शेषकी अपेक्षा अठारह समय है। तथा शेष कथन सामान्य तिर्यचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी भजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। तथा योनिमती तियचोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। विशेषार्थ-जिस प्रकार नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन समय घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ उक्त तोन प्रकारसे तियचोंके भी घटित कर लेना चाहिये । तथा उक्त तीन प्रकारके तियचोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल अठारह समय प्राप्त होता है। जिसका खुलासा इस प्रकार है उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच असंज्ञी भी होते हैं और संज्ञी भी। अब ऐसा असंज्ञी जीव लो जिसकी आयुमें एक आवलि और सोलह समय शेष है । तब उसने विवक्षित कषायको छोड़कर शेष पन्द्रह कषायोंकी उत्तरोत्तर भुजगार स्थितिका पन्द्रह समयमें बन्ध किया। पश्चात् एक आवलिके बाद जब आयुमें सोलह समय शेष रहे तब उसने उन भुजगार स्थितियोंका पन्द्रह समयके द्वारा विवक्षित कषायमें संक्रमण किया। अनन्तर सोलहवें समयमें उसने अद्धाक्षयसे भुजगार स्थितिको बाँधा और सत्रहवें समयमें ऋजुगतिसे संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर संज्ञियोंके योग्य स्थितिका बन्ध किया। पश्चात् अठारहवें समयमें संक्लेशक्षयसे भुजगार स्थितिको बाँधा । इस प्रकार यहाँ भुजगार स्थितिके कुल अठारह समय प्राप्त होते हैं। किन्तु तिथंच पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके स्त्रीवेदकी और योनिमती तियचके पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिके सत्रह समय ही प्राप्त होते हैं जिसका उल्लेख मूलमें किया ही है। बात यह है कि जो जिस वेदके साथ उत्पन्न होता है उसके पूर्व पर्यायके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में वह वेद ही बंधता है, अतः योनिमती तियचमें उत्पन्न होनेवाले जीवके पर्व पर्यायके अन्तमें पुरुष व नपुंसक वेदका बंध नहीं होनेसे सोलह कषायोंका उक्त वेदोंमें संक्रमण भी नहीं होता, अतः उक्त वेदोंके भुजगारके अठारह समय घटित नहीं होते। इसीप्रकार पर्याप्त तियचके स्त्रीवेदके भुजगारका काल अठारह समय न रहकर सत्रह समय कहा है। सो यह सत्रह समय स्वस्थानकी अपेक्षा जानना चाहिये। ६५५. पंचेन्द्रिय तियच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतरस्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा शेष स्थितिविभक्तियोंका भंग तियचोंके समान है किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy