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________________ १३८ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ होदि । तदो संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव तिस्से द्विदीए रूवूणमद्धं झीणं ति । तो सगले अर्द्ध घादिदे संखेज्जगुणहाणी होदि । एतो संखेज्जगुणहाणी चेव होतॄण गच्छदि जाव तथ्याओग्गधुवट्ठि दिसंतकम्मे त्ति । सम्मत्तं वेत्तूण पुण किरियाविरहिदो होण जाव अच्छदि ताव असंखेज्जभागहाणी चेव होदि । अनंताणुबंधिधिसंजोयणाए डिदिखंडएस पदमाणेसु संखेज्जभागहाणी अण्णत्थ असंखेज्जभागहाणी । दंसणमोहक्खवयस्स अपुव्वकरणपढमसमयप्प हुडिं जाव पलिदोवमट्ठि दिसंतकम्मे त्ति ताव द्विदिकंडयाणं चरिमफालीस पदमणिया सुसंखेज्जभागहाणी होदि; तम्मि अद्धाणे ट्ठिदिखंडयस्स पलिदो - वमसंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । अण्णत्थ असंखेज्जभागहाणी चेव || अधट्ठिदिगलणाए संसारावस्था पुण द्विदिखंडयस्स नियमो णत्थि कत्थ वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागायामाणं, कत्थव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागायामाणं कत्थ वि संखेज्जसागरो - मायामाणं डिदिखंडयाणं संसारावत्थाए उवलंभादो । पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्म पहुडि जाव दूराव किट्टी चेट्ठदि ताव ट्ठिदिकंडयचरिमफालीए पडमाणाए संखेज्जगुणहाणी हो । अण्णत्थ असंखेज्जभागहाणी अधडिदिगलणाए । का दूरावकिट्टी १ जत्थ घादिदसेसट्ठिदिसंतकम्मस्स संखेज्जेसु भागेसु घादिदेसु अवसेसडिदी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेता होदि साट्ठिदी दूरावकिट्टी णाम । सा च एयवियप्प; सव्वे सिमणियट्टीण मेगसमए वट्टमाणाणं परिणामेसु समाणेसु संतेसु ट्ठिदिखंडयाणमस माणत्तंविरोहादो । क्षीण होता है तब तक असंख्यातभागहानि होती है । उसके बाद संख्यातभागहानि होकर तब तक जाती है। जब तक उस स्थितिकी एक कम आधी स्थिति क्षीण होती है । तदनन्तर पूरी आधी स्थिति क्षीण होने पर संख्यातगुणहानि होती है । तथा यहाँ से तत्प्रायोग्य ध्रुवस्थिति सत्कर्म प्राप्त होने तक संख्यात गुणहानि ही होकर जाती है । सम्यक्त्वकी अपेक्षा तो जबतक जीव क्रियासे रहित होकर रहता है। तबतक असंख्यातभागहानि ही होती है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के समय स्थितिकाण्डकों के पतन होने पर संख्यातभागहानि होती है । तथा अन्यत्र असंख्यात भागहानि होती है | दर्शनमोहनी की क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समय से लेकर जबतक पल्योपम प्रमाण स्थितिसत्कर्म रहता है तबतक स्थितिकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंका पतन होते समय संख्यात भागहानि होती है, क्योंकि उस स्थानमें स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । तथा अन्यन्त्र असंख्यातभागहानि ही होती है । अधःस्थितिगलनाके समय संसारावस्था में तो स्थितिकाण्डकघातका नियम नहीं है; क्योंकि संसारावस्था में कहीं पर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण आयामवाले, कहीं पर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण आयामवाले, तथा कहीं पर संख्यात सागरप्रमाण आयाम वाले स्थितिकाण्डकोंकी उपलब्धि होती है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर जब तक दूरापकृष्टि प्राप्त होती है तबतक स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर संख्यातगुणहानि होती है । अन्यत्र अधः स्थितिगलना में असंख्यात भागहानि होती है । शंका — दूराव कृष्टि किसे कहते हैं ? समाधान -- जहाँ पर घात करके शेष रहे स्थितिसत्कर्मके संख्यात बहुभाग के घात होने पर अवशेष स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण रह जाती है वह स्थिति दूरापकृष्टि कहलाती है और वह एक विकल्पवाली होती है; क्योंकि एक समय में विद्यमान सभी अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवाले जीवोंके परिणामोंके समान रहते हुए स्थितिकाण्डकोंको असमान माननेमें विरोध आता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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