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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ $ २४४. संपहि संखेज्जगुणवड्डी बुच्चदे । तं जहा - पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तसम्मत्तडिदिसंतकम्मियमिच्छादिट्टिणा उवसमसम्मत्ते गहिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । एत्तो समयुत्तरादिकमेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्तहिदीओ परिवाडीए वड्डाविय सम्मत्ते विसंखेज्जगुणवडीओ चेव होंति । एवं णेदव्वं जाव सागरोवमं सागरोवमपृधत्तं वा पत्तं ति । कुदो ? उवसमसम्मत्तपाओग्गाणं हिदीणमेत्तियाणं चेव संभवादो। एत्तो समयुत्तरसम्मत्त हिदिसंतकम्मियमिच्छादिहिणा वेद्गसम्मत्ते गहिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । एवं गंतूण मिच्छत्तधुवदीए अद्धमेत्तसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मेण धुवट्टिदिमेत्तमिच्छत्तट्ठिदीए वेद्गसम्मत्ते गहिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । एवं मिच्छत्तधुवट्ठिदीए णिरुद्वाए एत्तिओ वेव संखेज्जगुणवड्डिविसयो । पुणो पढमवारणिरुद्धसम्मत्तडिदिसंतं धुवं कारण पुव्वुत्तमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मं समयुत्तरादिकमेण वड्डाविय वेदव्वं जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तमिच्छत्तट्ठिदिं बंधिय पडिहग्गो होद्ण वेदगसम्मत्तं गहिदसमए सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं संखेज्जगुणवड्डि कादृण ट्ठिदो त्ति । पुणो पुव्विलसम्मत्तट्ठिदीदो समयुत्तरसम्मत्तट्ठिदिणिरंभणं काढूण पुव्वं व संखेञ्जगुणवड्डिवियप्पा अपरिसेप्ता वत्तव्वा । एवं दुसमयुत्तर- तिसमयुत्तर। दिकमेण सम्मतट्ठिदिसतं बडाविय णेदव्वं जाव सम्मत्तद्विदितं धुवट्टिदि पत्तं ति । ताघे मिच्छत्तधुवट्ठिदीदो दुगुणमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते १४४ $ २४४. अब संख्यातगुणवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है - सम्यक्त्वकी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यात गुणवृद्धि होती है । इसके आगे एक समय अधिक आदि क्रमसे सम्यक्त्व और सम्यforecast स्थितियोंको उत्तरोत्तर बढ़ाकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर भी संख्यातगुणवृद्धियाँ ही होती हैं । सम्यक्त्वकी एक सागर या एक सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थिति के प्राप्त होने तक इसी प्रकार कथन करना चाहिये, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके योग्य इतनी स्थितियाँ ही सम्भव हैं। इसके आगे सम्यक्त्वकी एक समय अधिक स्थिति सत्कर्मवाले मिध्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक समय प्रमाण स्थितिके बढ़ाने पर मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थिति से सम्यक्त्वकी आधी स्थिति सत्कर्मवाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिप्रमाण स्थिति के साथ वेदक सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके रहते हुए संख्यातगुणवृद्धिविषयक भेद इतने ही होते हैं । पुनः पहलीबार ग्रहण किये गये सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वको ध्रुव करके और पूर्वोक्त मिध्यात्वके स्थितिसत्कर्मको एक समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर वहाँ तक ले जाना चाहिये । जहाँ तक सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर और प्रतिभम होकर वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने के प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की संख्यातगुणवृद्धि करके यह जीव स्थित हो । पुनः पहलेकी सम्यक्त्वकी स्थिति से एक समय अधिक सम्यक्त्वकी स्थितिको ग्रहण करके पहले के समान संख्या वृद्धि सब विकल्प कहना चाहिये । इस प्रकार दो समय अधिक, तीन समय अधिक आदि क्रमसे सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वको बढ़ाकर सम्यक्त्वका स्थितिसत्त्व ध्रुवस्थितिको प्राप्त होने तक लेजाना चाहिये । उस समय मिथ्यात्वकी ध्रवस्थिति से मिध्यात्वके दूने स्थितिसत्कर्मवाले जीवके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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