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________________ गा०२२] वडिपरूवणाए समुकित्तणा १४५ गहिदे संखेजगुणवड्डी होदि । पुणो इमं मिच्छत्तधुवहिदिमेत्तसम्मत्तद्विदि धुवं कादूण दुगुणमिच्छत्तधुवट्ठिदिं समयुत्तरादिकमेण वड्डाविय णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तमिच्छत्तट्टिदिसंतकम्म त्ति । पुणो समयुत्तरमिच्छत्तधुवट्ठिदिमेत्तसम्मत्तद्विदीए उवरि दुसमयाहियधुवहिदिमेत्तं वड्डिय वेदगसम्मत्ते गहिदे संखेजगुणवड्डी होदि । एवमप्पप्पणो णिरुद्धढिदिसंतकम्मस्सुवरि दुगुण-दुगुणकमेण मिच्छत्तहिदि बंधाविय वेदगसम्मत्ते गहिदे दुगुणवड्डी होदि । एवं णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणसचरिसागरोवमकोडाकोडि त्ति । एवं णीदे मिच्छत्तधुवद्विदीए उवरि समयुत्तरादिकमेण जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणमद्धमेत्तद्विदीओ ति ताव एदाहि हिदीहि संखेजगुणवड्डिवियप्पालद्धा। पुणो उपरिमतदद्धमेत्तहिदीहि ण लद्धा । सम्मत्त'सम्मामिच्छत्ताणमसंखेजगुणहाणी दंसणमोहणीयक्खवणाए जहा मिच्छत्तस्स दूरावकिट्टिद्विदिसंतकम्मे सेसे असंखेञ्जगुणहाणी परूविदा तहा परूवेयव्वा; विसेसाभावादो। $२४५. संपहि असंखेजभागहाणो वुच्चदे । तं जहा--सम्मत्तं घेत्तण जाव किरियाए विणा वेछावट्टिसागरोवमाणि भवदि ताव अघट्टिदिगलणाए असंखेजमागहाणी होदि । दसणमोहक्खवणाए वि सव्वद्विदिकंडयाणं चरिमफालीणं पदणसमयं मोसण अण्णत्थ अघट्टिदिगलणाए असंखेजभागहाणी चेव । अथवा एवमसंखेजा भागहाणी वत्तव्वा । तं जहा--अंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तसम्मत्तहिदिसंतकम्मियद्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है। पुन: मिथ्यात्वकी ध्वस्थिति प्रमाण सम्यक्त्वकी इस स्थितिको ध्रव करके मिथ्यात्वकी दूनी ध्रुवस्थितिको एक समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्म प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। पुनः मिथ्यात्वकी एक समय अधिक ध्रवस्थितिप्रमाण सम्यक्त्वकी स्थितिके ऊपर दो समय अधिक ध्रवस्थितिप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार अपने अपने विवक्षित हुए स्थितिसत्कर्मके ऊपर दुने दुने क्रमसे मिथ्यात्वको स्थितिका बन्ध कराके वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर दुगुनी वृद्धि होती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ी सागर तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ले जाने पर मिथ्यात्वकी ध्रवस्थितिके ऊपर एक समय अधिक आदि क्रमसे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी आधी स्थितिके प्राप्त होने तक इन स्थितियों के द्वारा संख्यातगुणवृद्धिके भेद प्राप्त होते हैं। पुनः सम्यक्त्वकी आधी ऊपरकी स्थितियों के द्वारा संख्यातगुणवृद्धिके भेद नहीं प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें मिथ्यात्वकी दूरापकृष्टि स्थितिसत्कके शेष रहने पर असंख्यातगुणहानिका कथन किया उस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्याकी असंख्यातगुणहानिका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ६२४५. अब असंख्यातभागहानिका कथन करते हैं-सम्यक्त्वको ग्रहण करके जब तक क्रियाके बिना एकसौ बत्तीस सागर काल होता है तवतक अधःस्थितिगलनाके द्वारा असंख्यात भागहानि होती है। दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय भी सब स्थितिकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंके पतन समयको छोड़कर अन्यत्र अधःस्थितिगलनाके द्वारा असंख्यातभागहानि ही होती है। अथवा इस प्रकार असंख्यातभागहानिका कथन करना चाहिये। जो इस प्रकार है-सम्यक्त्वकी अन्तर्मुहूर्तकम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके पल्योपमके .. . ता. प्रतौ- मेत्तहिदिहीणलद्धसम्मत्त-इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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