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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारकाला ३५ ६०, बादरपुढविपज्ज०-बादरआउ०पज्ज०-बादरते उपज्जयादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपचेय०पज्ज० सवपयडी० भुज०-अवढि० विदियपुढविभंगो। अप्पद० विगलिंदियपज्जत्तभंगो। ६१. तसअपज्ज० छब्बीसपयडी० भुज० अवट्टि० ओघं । णवरि इत्थिपुरिस.. भुज० सत्तारस समया । अप्पद० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगसमओ, उक्क • अंतोमु०।। 5६२. पंचमण-पंचवचि० मिच्छत्त सोलसक०-णवणोक०-सम्मत्त-सम्मामि० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सेस० विदियपुढविभंगो । एवं वेउव्विय० । कायजोगि० ओघभंगो। णवरि सव्वेसिमप्प० ९क० पलिदो० असंखे०भागो। ओरालिय० मिच्छत्त० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० वे समया। अवढि० ओघं । अप्प. ज० एगस०, उक्क० वावीस वाससहस्साणि देसूणाणि । सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगस०, उक्क० सत्तारस समया। अवट्टि० ओघं । अप्पदर० सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण ६०. बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंकी भुगगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है ? ६१. बस अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित स्थिति विभक्तियोंका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूत है। विशेषार्थ-सब अपर्याप्तक नपुंसक ही होते हैं, इसलिये त्रस अपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय ही प्राप्त होता है। तथा अपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट काल अन्तमहूर्त है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है। ६२. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष कथन दूसरी पृथिवीके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। काययोगियोंके ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशषता है कि इनके सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । अवस्थितस्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा इन प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका और , ता. प्रतौ सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज०एणसमो, उस० अंतोमुहुरा इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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