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________________ गा० २२] वहिपरूवणाए कालो १८५ जहण्णुक्क० एगसमयो । एवं संजदाणं । णवरि मणपज्जवणाणी० संजदेसु च णवणोक०तिसंजलणवदिरित्तपयडीणं संखेज्जभागहाणीए ओघं । सामाइय-छेदो० एवं चेव । णवरि लोभसंजल. खेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगसमओ। ३०८. परिहार० अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जमागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडी देसूणा। मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० तिण्हं हाणीणमोघं । हानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार संयतोंके जानना। किन्तु इतनी विशे. षता है कि मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंमें नौ नोकषाय और तीन संज्वलनोंसे रहित शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका काल ओघके समान है। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञानका जघन्य काल अन्र्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है इसलिये इनमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है। किन्तु मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और आठ कषाय इनके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर जब एक आ लप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब जघन्य परीतासंख्यात कम एक प्राव ल काल तक इनकी असंख्यातभागहानि ही होती है अतः इनकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त न कहकर उक्त प्रमाण कहना चाहिये। अन्यत्र जिन जिन मार्गणाओं में यह काल सम्भव हो वहाँ भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। वैसे सामान्यरूपसे देखा जाय तो यह काल भी अन्तर्मुहूर्तमें गभित है इसलिये इसे अन्तर्मुहूर्त कहनेमें भी कोई आपत्ति नहीं है । यहाँ इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानिका केवज उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये । किन्तु सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानिके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वके बाद जीवके अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानि ही होती है, इसलिये इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसी प्रकार अवधिज्ञानमें जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूते और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिवर्षप्रमाण है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ पर प्रकारान्तरसे मनःपर्ययज्ञानमें २४ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय भी बतलाया हे सा यह जिस जीवके अन्य हानिके बाद एक समय तक असख्यातभागहानि हुई और दूसरे समयमें मर गया उसकी अपेक्षासे जानना चाहिये। इसी प्रकार संयतोंके जानना चाहिये। यहाँ पर मनापर्ययज्ञान और संयतोंके नौ नोकषाय और तीन संज्वलनोंको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका काल ओघके समान कहा है सो इसका इतना ही मतलब है कि इनका यहाँ जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण है, क्योंकि मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंके दर्शनमोह और चारिमोहकी क्षपणा होती है। तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानिका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय ही है। सामयिक और छेदोपस्थापनामें भी इसा प्रकार जानना चाहिये। किन्तु ये दोनों संयम नौवें गुणस्थान तक ही होते हैं, अतः इनमें लोभकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है। ६३०८, परिहारविशुद्धिसंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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