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________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती। मोघं । एवं विहंगणाणो० । णवरि छठवीसं पयडीणमसंखेज्जमागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० एकत्तीस सागरो० देसूणाणि । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं जहण्णुक. एगस०। $ ३०७. आभिणि०-सुद० छव्वीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० छावद्विसागरो० सादिरेयाणि अंतोमुहुत्तेण । णवरि मिच्छत्त० अणंताणु०चउक्क.. अट्ठक. जह. आवलिया जहण्णपरित्तासंखेज्जेणूणा । एदमत्थपदमुवरि वि जहासंभवं जोजेयव्वं । अथवा एदं पि अंतोमुत्तमेवे त्ति सव्वत्थ णेदव्वं । संखज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणमोघं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्हं हाणीणमोघं । सम्मत्त. असंखेज्जभागहाणीए जह० अंतोमु०, सम्मामि० आवलिया परित्तासंखेज्जेणूणा । उक्क० दोहं पि छावहिसागरो० सादिरेयाणि । एवमोहिणाण । मणपज्जव० अट्ठावीसपयडोणमसंखेज्जभागहाणी० जह. अंतोमु० । अथवा छब्बीस पयडीणमेयसमओ। उक्क० पुवकोडी देसूणा । संखज्जभागहाणि-संखज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं काल ओघके समान है। इसी प्रकार विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। विशेषार्थ-नौंवे प्रैवेयकका उत्कृष्ट काल ३१ सागर है और वहाँ मिथ्यादृष्टि जीव भी होते हैं अतः कुमतिज्ञान और कुश्रुतज्ञानमें असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा। यहाँ साधिकसे पिछले भवका कुछ काल लिया है। किन्तु विभङ्गज्ञान अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होता अतः इसमें असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर कहा । तथा तीनों अज्ञानोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके इससे अधिक काल तक इनकी सत्ता नहीं रहती। ६३०७. आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक छयासठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और आठ कषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य परीतासंख्यात कम एक आवलिप्रमाण है। यह अर्थपद यथासम्भव आगे भी लगा लेना चाहिये। अथवा यह भी अन्तर्मुहूर्त ही है इस प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिये। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन हानियों का काल ओघके समान है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल परीतासंख्यात कम एक आवलिप्रमाण है। दोनोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिज्ञानियोंके जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानियों में अट्ठाइस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। अथवा छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुण १ ता. प्रतौ घडवीस इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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