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गा० २२] वड्डिपरूवणाए फोसणं
२३७ ६३७९ इंदियाणु० सम्वेइंदियाणं छब्बीसं पयडीणमसंखे० भागवड्डि-हाणिअवट्टि ० के० खेत्तं पोसिदं ? सव्वलोगो । दोहाणि लोगस्स असंखे०भागो सव्वलोगो वा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं पुढवि०-बादरपुढवि बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०बादरआउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहमाउ०-सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०. बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज. सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-सव्ववणप्फदि-सव्वणिगोदा त्ति ।
$३८० सव्वविगलिंदियाणं छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-संखे०भाग
चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्य पद यथासम्भव मारणान्तिक समुद्घातके समय और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होते, अतः इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। तथा शेष स्पर्श
सामान्य देवोंके स्पर्शनके समान कहा है। भेवनवासी आदिमें सामान्य देवोंके समान स्पर्शन घटित हो जाता है, इसलिए वह उनके समान कहा है। मात्र जिसका जो स्पर्शन हो वह लेना चाहिए। आगे आनतादिकमें उनके स्पर्शनको ध्यानमें रखकर स्पर्शन कहा है, क्योंकि वहाँ जिन प्रकृतियोंके जो पद सम्भव हैं उनका उक्त प्रमाण स्पर्शन प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं आती।
६३७९ इंन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे सब एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक,बादर जलकायिक अपयोप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक,बादर वायुकायिक,बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में सबके छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पद सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा सब लोक प्रमाण स्पर्शन कहा है। दो हानियाँ ऐसे एकेन्द्रियोंके ही सम्भव हैं जो संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें इन हानियोंके योग्य स्थितिकाण्डकोंको प्रारम्भ कर और मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं । यतः ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, अतः इन पदोंकी अपेक्षा उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण घटित कर लेना चाहिए। यहाँ पृथिवीकायिक आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान कही है।
६३८० सब विकलेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि,
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