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________________ ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६६२८. चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीसु एइंदियवीचारहाणपरिहीणसागरोवमचत्तारिसत्तभागे अवणिय रूवे पक्खित्ते अभव्वसिद्धियपाओग्गाणि अट्ठकसायहाणाणि होति । पुणो खबगसेढिं चडिय अणियट्टिअद्धाए चारित्तमोहणीयस्स एगसागरोवमचदुसत्तभागमेत्ते द्विदिसंतकम्मे सेसे पलिदो० संखे०भागमेत्तं द्विदिकंडयमागाएदि । तम्हि पादिदे सेसहिदिसंतकम्ममपुणरुत्तहाणं होदि, पलिदो० संखे० भागेणूणेगसागरोवमचदुसत्तभागपमाणत्तादो । एत्तो प्पहुडि अढकसायाणमपुणरुत्ताणि चेव द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि उप्पअंति जाव एगा हिदी दुसमयकालपमाणा चेविदा ति । एदाणि खवगसेढीए लद्धअंतोमुहुत्तमेत्तहिदिसंतकम्मट्ठाणाणि पुग्विल्लहाणेसु छुहेदव्वाणि । एवं संछुद्धे जेणट्टकसायाणं सव्वढिदिसंतकम्मट्ठाणाणि होंति तेणेदाणि उवरि भण्णमाणट्ठाणेहिंतो थोवाणि त्ति । ® इत्थि-णवुसयवेदाणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । ६२९. कुदो ? अट्टकसाएहि लद्धेहि सेसहिदिसंतकम्मट्ठाणाणि लभ्रूण पुणो अट्ठकसायक्खीणपदेसादो उवरि जावित्थिवेदक्खीणपदेसो ति तावेदम्मि अद्धाणे अंतोमुहुत्तप्पमाणे जत्तियमेत्ता समया अत्थि तत्तियमेतद्विदिसंतकम्मट्ठाणेहि अहियत्तादो । इत्थिवेदादो हेहा णडणवुसयवेदस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणं कथमित्थिवेदडिदिसंतकम्मट्ठाणेहि समाणत्तं ? ण, णवंसयवेदोदएण खवगसेढिं चडिदजीवाणं ६२८. चालीस कोड़ाकोड़ी सागरमेंसे एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंसे रहित एक सागरके सात भागोंमेंसे चार भाग घटाकर जो शेष रहे उनमें एक मिला देने पर अभव्योंके योग्य आठ कषायस्थान होते हैं। पुनः क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव अनिवृत्तिकरणके कालमें चारित्रमोहनीयके एक सागरके सात भागोंमेंसे चार भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहने पर पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकको प्राप्त करता है । उसके पतन करने पर शेष स्थितिसत्कर्मसम्बन्धी अपुनरुक्त स्थान होता है क्योंकि उसका प्रमाण एक सागरके पल्यका संख्यातवाँ भाग कम चार भाग है। यहाँसे लेकर दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक आठ कषायोंके अपुनरुक्त ही स्थितिसत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं। क्षपकश्रेणिमें प्राप्त हुए ये अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिसत्कर्मस्थान पूर्व स्थानों में मिला देना चाहिए। इस प्रकार इनके मिला देने पर चूँकि आठ कषायोंके सब स्थितिसत्कर्मस्थान होते हैं अतः ये आगे कहे जानेवाले स्थानोंसे थोड़े हैं। . ॐ इनसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान बराबर होते हुए भी विशेष अधिक है। ___$ ६२९. क्योंकि आठ कषायोंकी अपेक्षा जो सब स्थितिसत्कर्मस्थान प्राप्त हुए वे आठ कषायोंके क्षीण होनेके स्थानसे लेकर स्त्रीवेदके क्षीण होनेके स्थान तक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण इस अध्वानमें जितने समय प्राप्त होते हैं उतने स्थितिसत्कर्मस्थानोंसे अधिक होते हैं। शंका-नपुंसकवेदका नाश स्त्रीवेदके पहले हो जाता है, अतः नपुंसकवेदके सत्कर्मस्थान बीवेदके सत्कर्मस्थानोंके समान कैसे होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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