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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ६ ३३६. वेदाणुवादेण इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-सोनसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डिअसंखेजभागहाणि-अवढि० ज० एगसमओ । संखेजभागवड्डि-संखेजभागहाणि-संखेजगुण. हाणीणं जह. अंतोमु०, उक्क० सम्वेसि पि पणवण्णपलिदोवमाण देसूणाणि । णवरि अणंताणु०च उक्कवजाणमसंखेजभागहाणी. अंतोमुहत्तं । संखेजगुणवड्वोए संखेजभागवडिभंगो। णवरि सत्तणोकसायाणं संखञ्जगुणवड्डीए जहण्णंतरमेगसमओ। असंखेजगुणहाणीए जहण्णुक० अंतोमु० । अणंताणु०चउक० असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्य० ज० .................................. दो निषेकोंके शेष रह जानेपर संख्यातगुणहानि होती है। औदारिकमिश्रकाययोगमें २६ प्रकृतियोंमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बिना जो शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय बतलाया है वह, जो लब्ध्यपर्याप्तक दो इन्द्रिय स्वस्थानमें संख्यातभागवृद्धि करता है और दूसरे समयमें अवस्थितविभक्तिको करके तीसरे समयमें औदारिकमिश्रयोगके साथ तेइन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर संख्यातभागवृद्धिको करता है, उसके प्राप्त होता है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक तेइन्द्रियको चौइन्द्रियमें उत्पन्न कराके भी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त किया जा सकता है। तथा हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर जो एक समय बतलाया है वह इस प्रकार प्राप्त होता है-जिसके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी सत्त्वस्थिति एकेद्रियके योग्य है ऐसा कोई एक एकेन्द्रिय जीव संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ। इसके अभी हास्यादिकमेंसे विवक्षित प्रकृतिका बन्ध नहीं हो रहा है। अब शरीरग्रहण करनेके कुछ काल बाद औदारिकमिश्रकाययोगके रहते हुए उसने जिसका अन्तरकाल प्राप्त करना हो उसकी पहले समयमें बन्ध द्वारा संख्यातगुणवृद्धि की, दूसरे समयमें अवस्थितविभक्ति की और तीसरे समयमें संक्लेशक्षयसे संख्यातगुणवृद्धि की तो इस प्रकार उक्त प्रकृतियोंमें संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। इस प्रकार है-अन्तरकाल जो अन्तमुहूर्त बतलाया है वह स्थितिकाण्डक घातकी अपेक्षासे बतलाया है। पर औदारिकमिश्रकाययोगमें इस प्रकारकी स्थिति अधिकतर प्राप्त नहीं होती, अतः इनका निषेध किया। औदारिकमिश्रकाययोगमें जो दोइन्द्रिय तीन इन्द्रियोंमें और तीन इन्द्रिय चार इन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। तथा जो एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें इसप्रकार जीवोंका उत्पाद नही होता, अतः यहाँ उक्त पदोंका जघन्य अन्तर एक समय नहीं कहा। शेष कथन सुगम है। $३३९. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायऔर नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम पचवन पल्य है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके बिना शेष प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तथा संख्यातगुणवृद्धिका भंग संख्यातभागवृद्धिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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