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________________ १२७ गा० २२]] वडिपरूवणा त्ति णियमणिराकरणदुवारेण पुणरुत्तदोसमजोएदूण पुणरवि सत्थाणवड्डिपरूवणं कस्सामो। तं जहा-पलिदोवमं हविय पुणो तस्स हेट्ठा मागहारो त्ति संकप्पिय अण्णम्मि पलिदोवमे ठविदे पलिदोवमं पेक्खिय लद्धरूवे वड्ढाविदे असंखेजभागवड्डी होदि । पुणो धुवद्विदि त्ति संखेजपलिदोवमाणि ठविय तेसिं हेट्ठा भागहारो त्ति संकप्पिय धुवहिदीए ठविदाए धुवहिदि पडुच्च असंखेजभागवड्डीए आदी होदि । दुसमयुत्तरहिदि बंधमाणाणं पि असंखेजभागवड्डी चेव होदि; पलिदोवमस्स पलिदोवमदुभागमागहारत्तादो । एवं तिण्णिचत्तारि-पंचआदिसरूवेण वड्डमाणेसु धुवहिदीए अभंतरे पलिदोवमसलागमेत्तसमएम बंधेण वड्विदेसु पलिदोवमं धुवाद्विदिं च पेक्खिदण असंखेजभागवड्डी चेव होदि: पलिदोवमस्स धुवद्विदिपलिदोवमसलागोवट्टिद'पलिदोवमभागहारत्तादो धुवट्ठिदीए पलिदोवम. भागहारत्तादो। एवं रूवुत्तरादिकमेण वडिरुवाणि गच्छमाणाणि आवलियंपाविय पुणो कमेण पदरावलियं पाविय पुणो जधाकमेण पलिदोवमपढमवग्गमूलं पत्ताणि ताधे वि पलिदोवमं धुवट्टिदिं च पेक्खिदण असंखेजभागवड्डी चेवः पलिदोवमस्स पलिदोवमपढमवग्गमूलभागहारत्तादो धुवाद्विदीए धुवढिदिपलिदोवमसलागगुणिदपलिदोवमपढमवग्गमूल. भागहारत्तादो । एवं गंतूण जहण्णपरित्तासंखेजमादि कादण जाव पलिदोवमपढमवग्गमूलं ति एदेसिमसंखेज्जाणं वग्गाणमण्णोण्णब्भासे कदे जत्तिया समया तत्तियमेत्तं धुवट्ठिदीए उवरि वड्डिदण बंधमाणस्स वि पलिदोवमं धुवहिदि च पेक्खिद्ग असंखेजभागवड्डी है इस नियमके निराकरण द्वारा पुनरुक्त दोषको नहीं गिनते हुए दूसरी बार भी स्वस्थानवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-पल्यको स्थापित करके पुनः उसके नीचे भागहाररूपसे एक दूसरे पल्यके स्थापित कर देने पर पल्यको देखते हुए लब्ध एकके बढ़ाने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है। पुनः यह ध्रवस्थिति है ऐसा जानकर संख्यात पल्योंकी स्थापना करके और उसके नीचे यह भागहार है ऐसा संकल्प करके ध्रवस्थितिके स्थापित करने पर ध्रुवस्थितिको देखते हुए लब्ध एकके बढ़ाने पर असंख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। दो समय अधिक स्थितिको बाँधनेवाले जीवोंके भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि यहाँ पर पल्योपमका भागहार पल्योपमका द्वितीय भाग है । इसी प्रकार पल्योपममें तीन, चार पाँच आदिके बढ़ाने पर तथा ध्रुवस्थितिमें जितने पल्य हों उतने समयोंके बन्धरूपसे ध्रवस्थितिमें बढ़ानेपर पल्य और ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवद्धि ही होती है क्योंकि ध्रवस्थितिमें जितने पल्य हैं उनका भाग पल्यमें देनेपर जो लब्ध आवे उतना यहाँ पल्यका भागहार होता है और ध्रवस्थितिका भागहार एक पल्य होता है। इस प्रकार एक अधिक आदिके क्रमसे वृद्धिके अंक आगे जाकर एक आवलीप्रमाण हो जाते हैं। पुनःप्रतरावलिप्रमाण हो जाते हैं। पुनः यथाक्रमसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको प्राप्त होते हैं। तब उस समय भी पल्योपम और ध्रवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवद्धि ही होती है क्योंकि यहाँ पल्यका भागहार पल्यका प्रथमवर्गमूल है और ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिमें जितने पल्य हों उनसे पल्यके प्रथम वर्गमूलको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना है । इस प्रकार वृद्धि करते हुए जघन्य परीतासंख्यातसे लेकर पल्यके प्रथमवर्गमूल तक इन असंख्यात वाँका परस्पर गुणा करनेपर जितने समय प्राप्त हों उतने समय ध्रुवस्थितिके ऊपर बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवके भी पल्य और ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि होती है; क्योंकि यहाँ पल्यका भागहार जघन्य परीता १. भा-प्रतौ वहिद इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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