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________________ गा०२२] . वडिपरूवणाए अंतरं २०१ ६३३०. देवगदीए देवेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डि-अवढि० जह० एगसमओ। संखेजभागवड्डि संखेजगुणवड्डि-संखेजगुणहाणी. जह० अंतोमु० । उक० सम्वेसि पि अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । असंखेजमागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० । संखेजमागहाणी० जह० अंतोमुहु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखेजभागहाणी. जह० एगस० । तिण्णिहाणि-अवत्तव्वं जह० अंतोमु० । उक्क० सम्वेसि पि एकत्तीससागरो०' देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-दोहाणी० जह• अंतीमुहु०। असंखेजमागहाणी० जह० एगस० । असंखेजगुणवाड-असंखेजगुणहाणि अवत्तब० जह० पलिदोव० असंखेजदिमागो। उक० सव्व० एकत्तीस सागरो० देसूणाणि । अवढि० जह० अंतोमुहु०, उक० काल पृथक्त्वकोटिपूर्व है, अतः जो संज्ञी तिथंच अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके साथ असंज्ञियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ पर पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक असंख्यात व संख्यातभागहानि द्वारा उत्कृष्ट स्थिति. को घटाता रहा उसके उक्त पदोंका उत्कष्ट अन्तर पृथक्त्वपर्वकाटि होता है। मनुष्यों में असंज्ञी नहीं होते, अतः मनुष्योंमें पूर्वकोटिपृथक्त्व अन्तर संभव नहीं है। तथा मनुष्योंके इन प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि भी होती है सो इसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका खुलासा जिस प्रकार ओघमें किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका और सब कथन तो पंचेन्द्रियतियंचोंके समान है, किन्तु असंख्यातगुणहानिके जघन्य अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य दर्शनमोहनीयकी क्षपणा भी करते हैं, अतः इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है। तथा इसका उत्कृष्ट अन्तर वही है जो तिर्यंचोंके बतलाया है। इसका खुलासा पहले किया ही है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीका भी सब कथन यहाँ पंचेन्द्रियतियचोंके समान है। किन्तु विशेषता इतनी है कि पंचेन्द्रियतियचोंके जो अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थित, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व बतलाया है वह यहाँ कुछ कम पूर्वकोटि होता है। ६३३०. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभाग. द्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और सवका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें. भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अवस्थितका जघन्य मा० प्रतौ जह० एगस.। असंखेजगुणवडी असंखेजगुणहाणी अवत्तव्वं जह• अंतोमु० । उक. एकत्तीससागरो. इति पाठः। २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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