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________________ गा० २२ ] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिअप्पा बहुअं १०३ चक्क० सव्वत्थोवा अवत्तव्व० । भुज० अनंतगुणा । सेस० मिच्छत्तभंगो । सम्मतसम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्तव्यट्ठिदिविहत्तिया । कुदो, सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियमिच्छादिट्ठीणमसंखेजदिभागो सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मेण सह सम्मत्तं पडिवअमाणरासी होदि । तस्स वि असंखेज्जदिभागो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय उवड्डपोग्गलपरिय भमदि । एदेण कमेण उवडपोग्गलपरियदृभंतरे संचिदणंतजीवरासीदो जेण संचयाणुसारेण वओ होदि तेण अवत्तव्यट्ठिदिविहत्तिया थोवा । ण च चुण्णिसुत्तेण सह विरोहो; पृधभूदाइरियउवदेसमवलंचिय अवड्डाणादो | अवडि० असंखेजगुणा । भुज० असंखेज्जगुणा । अप्प ० असंखेजगुणा । एवं तिरिक्ख० कायजोगि०- ओरालि ०- बुंस०चत्तारिक ० - असंजद ० - अचक्खु ० - तिणिले० - भवसि ० - आहारिति । O $ १९२. आदेसेण णेरइएस एवं चैव । णवरि अणंताणु सव्वत्थोवा अवत्तव्व ० । ज० असंखे० गुणा । एवं सव्वणेरइय- पंचिदियतिरिक्खतिय ० -देव-भवणादि जाव सहस्सार ० पंचिंदिय ० - पंचि ० पञ्ज० तस-तसपज० - पंचमण ० - पंचवचि ० वे उब्वि ० - इत्थि ०पुरिस ० चक्ख० तेउ०- पम्म० सणि ति । $ १९३. पंचि०तिरिक्खअपज० मिच्छत्त- सोलसक० णवणोकसाय० णिरयभंगो । संख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। शेष भंग मिथ्यात्व के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं; क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्म वाले मिध्यादृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण जीवराशि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व सत्कर्मके साथ सम्यक्त्व को प्राप्त होती है । तथा इसके भी असंख्यातवें भागप्रमाण जीवराशि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके उपार्धपुद्गल परिवर्तनकाल तक घूमती है । इस क्रमसे उपार्धपुद्गल परिवर्तन कालके भीतर संचित हुई अनन्त जीवराशिमें से चूँकि संचयके अनुसार व्यय होता है, इसलिये अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव थोड़े हैं । इस कथनेका चूर्णिसूत्र के साथ विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि यह कथन पृथग्भूत आचार्यके उपदेशका अवलम्ब लेकर अवस्थित है । इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, असंयत, अचक्षु दर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । • $ १९२. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में इसी प्रकार अर्थात् ओघ के समान ही जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चतुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवों के जानना चाहिए। - १६३. पंचेन्द्रियतिर्येच अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायका भंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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