SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं गस्थि । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पाबहुअं णत्थि; एगपदत्तादो। एवं मणुसअपज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-सव्वपंचकाय०-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-वेउ०मिस्स-कम्मइय०-तिण्णिअण्णाण-मिच्छा. दिष्टि-असण्णि० अणाहारि ति । ६१६४. मणुस० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक०-सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० अवत्त० थोवा । अवढि० संखे गुणा। भुज० संखे०गुणा । अप्पदर. असंखे०गुणा । अथवा सम्म०-सम्मामि० अवढि० थोवा। भुज० संखे० गुणा। अवत्तव्व० संखे०गुणा । अप्पद० असंखे० गुणा । अणंताणु०चउक्क० णिरओघभंगो। मणुसपज०-मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि जम्मि असंखेजगुणं तम्मि संखेजगुणं कायव्वं । ६ १९५. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा अव. त्तव्व० । अप्पदर० असंखेज्जगुणा । सम्मत्त० सम्मामि० ओघं । चुण्णिसुत्ते आणदादिसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अवविद विहत्ती णत्थि । एत्थ पुण उच्चारणाए अत्थि । एदं नारकियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्यपद नहीं है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ इन दो प्रकृतियोंका एक अल्पतरपद ही पाया जाता है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकजेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पांचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्नकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंके जानना चाहिए। ६१६४. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अथवा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ असंख्यातगुणा है वहाँ संख्यातगुणा कहना चाहिये । ६१९५ प्रानतकल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। चूर्णिसूत्रके अनुसार आनतादिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थिस्थितिविभक्ति नहीं है। परन्तु यहाँ उच्चारणामें है। सो जानकर इसकी संगति बिठा लेना चाहिये । यहां शेष प्रकृतियोंका अल्पवहुस्व नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy