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________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती३ असंखेजगुणा अणंतगुणा वा किण्ण होंति ? ण, आयाणुसारिवयणियमादो। * अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वहिदिविहत्तिया । १८७. कुदो, पलिदोवमस्स असंखेजभागपमाणत्तादो। * भुजगारहिदिविहत्तिया अणंतगुणा । १८८. सधजीवरासीए असंखेजदिमागमेत्तजीवाणं भुजगारं कुणमाणाणमुवलंभादो। - * अवहिदहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ६ १८६. कुदो? भुजगारहिदिविहत्तियसंचयणिमित्तदोसमएहितो अवद्विदहिदिविहत्तिजीवसंचयणिमित्तंतोमुहुत्तकालस्स असंखेजगुणत्तादो । * अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेज्जगुणा । $ १६०. कुदो ? अवट्ठिदहिदिबंधकालं पेक्खिदूण अप्पदरहिदिसंतकालस्स संखेजगुणत्तादो । एवं चुण्णिसुत्तत्थं परूविय मंदमेहाविजणाणुग्गहट्टमुच्चारणाणुगमं कस्सामो। ६१६१. अप्पाबहुअं दुविहं-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक.. णवणोक० सव्वत्थोवा मुज० । अवट्टि० असंखे०गुणा । अप्प० संखे०गुणा । अणताणु०. शंका-उपाधे पुद्गलपरिवर्तनके द्वारा संचित हुई अनन्त राशिमेंसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको करनेवाले जीव अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे या अनन्तगुणे क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि आयके अनुसार व्ययका नियम है। * अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। ६ १८७. क्योंकि ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। * भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। १८. क्योंकि सब जीव राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव भुजगार स्थितिविभक्तिको करते हुए पाये जाते हैं। * अवस्थितस्थितिभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। $ १८६. क्योंकि भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके संचयका निमित्त दो समय है और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके संचयका निमित्त अन्तर्मुहूर्त काल है जो कि दो समयसे असंख्यातगुणा है, अतः भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे है। - * अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६ १६०. क्योंकि अवस्थित स्थितिबन्धके कालको देखते हुए अल्पतर स्थितिसत्त्वका काल उससे संख्यातगुणा है । इस प्रकार चूर्णिसूत्रोंके अर्थका कथन करके अब मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये उच्चारणाका अनुगम करते हैं ६ १९१. ओघ और आदेशके भेदसे अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। उनमें से ओघ की अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगारस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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