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जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
* मिच्छत्तस्स अत्थि असंखेज्जभागवड्डी हाणी, संखेज्ज भागवड्डी हाणी, संखेज्जगुणबड्डी हाणी, असंखेज्जगुणहाणी अवद्वाणं ।
६ २३६. एदासि वड्डीणं हाणीणं च जहा पढमसुत्तम्मि देसामासियतेण सूचिदहाणिम्मि वड्डिहाणीणं सत्थाणपरत्थाणसरूवेण परूवण । कदा तहा एत्थ वि कायव्वा; विसेसाभावादो । तिब्व-तिव्वयर-तिब्बतमेहि द्विदिबंध ज्झवसाणङ्काणेहि ट्ठिदीए असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी संखेज्जगुणवड्डी च होदिति वदे । 'डिदिअणुभागे कसायादो कुणदि' त्ति सुत्तादो । ट्ठिदिखंडयाणं पुण णत्थि संभवो; णिकारणत्तादोत्ति ? ण, विसोही ट्ठिदिखंडयघादसंभवादो । का विसोही णाम ? जेसु जीवपरिणामेसु
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क्षपणा कर रहा है तो अपूर्वकरण से लेकर प्रत्येक स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातभागहानि होती है जा पल्यप्रमाण स्थिति के शेष रहने तक चालू रहती है किन्तु जब स्थिति एक पल्य रह जाती है तब स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातगुणहानि होती है; क्योंकि यहाँ काण्ड कका प्रमाण संख्यात बहुभाग है । तथा दूरापकृष्टि संज्ञावली स्थितिके शेष रहने पर प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय असंख्यातगुणहानि होती है; क्योंकि यहाँ असंख्यातगुणी स्थितिका घात हो जाता है । इसी प्रकार आगे भी एक समय कम श्रावलि - प्रमाण स्थिति शेष रहने तक जानना चाहिये । किन्तु इसके आगे उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक असंख्यातभागहानि होती है, क्योंकि यहाँ अधः स्थितिगलन के द्वारा एक एक निषेकका ही प्रति समय गलन होता है। इसके आगे संख्यात भागहानि होती है । यद्यपि यहाँ भी एक एक निषेकका ही गलन होता है पर यह एक एक निषेक विद्यमान स्थिति के संख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ संख्यातभागहानि बन जाती है । किन्तु यह क्रम जिनकी स्थिति तीन समय है ऐसे दो निषेकों शेष रहने तक ही चालू रहता है । पर दो निषेकोंके शेष रहने पर उनमें से एक निषेकके स्तिक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त हो जाने पर संख्यातगुणहानि प्राप्त होती है; क्योंकि तदनन्तर समय में दो समय कालप्रमाण स्थितिवाला एक निषेक पाया जाता है। फिर भी यह संख्यातगुणहानि निषेकों की अपेक्षासे कही है। कालकी अपेक्षा से नहीं; क्योंकि कालकी अपेक्षासे तो वहाँ भी संख्या भागहानि ही है; क्योंकि तीन समयकी स्थितिवाले द्वितीय निषेकके दो समयकी स्थितिवाले बचे हुए अन्तिम निषेकमें संक्रान्त होने पर संख्या भागहानि ही प्राप्त होती है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि संसार अवस्था में कब कितनी हानि होती है ऐसा कोई नियम नहीं है ।
* मिध्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि असंख्यातगुणहानि और अबस्थान होता है ।
२३६. जिस प्रकार पहले सूत्र में देशामर्षकरूपसे सूचित हुई हानिमें वृद्धि और हानिका स्वस्थान और परथानरूपसे कथन किया उसी प्रकार यहां भी इन वृद्धि और हानियोंका कथन करना चाहिये; क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
शंका तीव्र, तीव्रवर और तीव्रतम स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंसे स्थितिकी असंख्यात - भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि होती है ऐसा जाना जाता है; क्योंकि स्थिति और अनुभाग कषायसे होता है ऐसा सूत्रवचन है । परन्तु स्थितिकाण्डकों के होनेकी संभावना नहीं; क्योंकि उनके होनेका कोई कारण नहीं पाया जाता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि विशुद्धिसे स्थितिकाण्डकका घात होना संभव है ।
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