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________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए कालो बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज०-मादरवाउ०पज्ज-बादरवणफदिपज्ज-बादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जत्ते त्ति । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। णवरि अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुः । एवं सुहुमेइंदियपज्ज.. सुहुमेइंदियअपज्ज० बादरपुढविअपज्ज. सुहुमपुढविपज्ज०-सुहुमपुढविअपज्ज बादरआउ. अपज्ज०-सुहुम आउपज्ज-सुहुमआउअपज्ज०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउपज्ज० सुहुमतेउ. अपज्ज०-बादरवाउ अपज्ज०-सुहुमवाउपज्ज०-मुहुमवाउअपज्ज०-बादरवणप्फदिअपज्जसुहुमवणप्फदिपज्ज०-सुहुमवणप्फदिअपज्ज०-बादरणिगोदपज्जत्त-अपज्जत्त-सुहुमणिमोद पज्जत्त-सुहमणिगोदअपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्जत्ते ति।। २६७. बेइंदिय बेइंदियपज्ज-तेइंदिय-तेइंदियपज्ज०-चउरिदिय चउरिदियपज्ज. मिच्छत्त. असंखेज्जमागवड्डी० जह० एगसमओ, उक० वे समया। संखेज्जभागवड्डी० जहण्णुक्क० एगस०। असंखेज्जभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० । संखेज्जाणि वाससहस्साणि किण्ण लब्भंति ? ण, सण्णिढिदिसंतकम्मियवियलिंदियस्स वि संखेज्जभागहाणिकंडए' पादिदे पुणो अंतोमुहुत्तेण णियमेण संखेज्जभागहाणिकंडयस्स पदणुवएसादो। हजार वर्ष है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, वादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरअपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। ६२९७. द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। संख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शंका-असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि संज्ञीकी स्थितिसत्कर्मवाले विकलेन्द्रियके भी संख्यातभागहानिकाण्डकका पतन होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा नियमसे संख्यातभागहानिकाण्डकके पतनका उपदेश पाया जाता है। १ ता. आ. प्रत्योः असंखेज्जभागहाणिकंडए इति पाठः । २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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