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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ... २९५. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक असंखेजमागवड्डी० जह• एगसमओ, उक्क० वे सत्तारस समया। अवडिद० जह• एयसमओ, उक० अंतोमुहुः । असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेजदिभागो। संखेजभागहाणी० संखेजगुणहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त० सम्मामि० असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेजदिभागो। संखेजभागहाणी. जह. एगस०, उक्क० उक्कस्स० संखेजं दुरूवूणं । संखजगुणहाणी० असंखेजगुणहाणी० जहण्णु० एगसमओ। एवं वादरेइंदिय-सुहुमेइं दिय-पुढवि०-बादरपुढवि०-सुहुमपुढवि०-आउ०बादरआउ०-सुहुमआउ०-तेउ०-बादरतेउ०-सुहुमतेउ०-वाउ०-चादरवाउ०-सुहुमवाउ०वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-सुहुमवणप्फदि०-णिगोद० -बादरणिगोद०-मुहुमणिगोद०. बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरा ति । ६२९६. बादरेइंदियपज्जत्ताणमेइंदियभंगो । णवरि अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी० जह० एगसमओ, उक० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एवं बादरपुढविपज्ज.. भागहानिका काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। अन्यथा पूरी पर्याय भर असंख्यातभागहानि होती रहती है। यही कारण है कि आनतादिकमें उक्त बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। किन्तु नौ अनुदिश आदिमें सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं, अतः वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और संख्यात. भागहानि ही सम्भव हैं जिनका काल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। तथा नौ अनुदिश आदिमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य परीतासंख्यातसे कम एक आवलि है, क्योंकि विसंयोजनामें अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके बाद जब एक श्रावलि स्थिति शेष रह जाती है तब जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण स्थितिके शेष रहने तक असंख्यातभागहानि ही होती है और इसके बाद संख्यातभागहानि होने लगती है। शेष कथन सुगम है। ६२६५. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट वाल मिथ्यात्वका दो समय और शेषका सत्रह समय है। अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवे भागप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण है। संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद और बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिये। ६२६६. बादर एकेन्द्रिय पर्यातकोंके एकेन्द्रियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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