SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] वडिपरूषणाए कालो १७५ ____२९३. मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खमंगो । णवरि मिच्छत्त-बारसक०-बवणोक० संखेजभागहाणी० असंखेजमुणहाणी० ओघं । $ २६४. देवाणं णेरइयभंगो। णवरि सब्वेसिमसंखेजभागहाणी० जह• एयप्त०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० संपुण्णाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि सगहिदी। आणदादि जाव गवगेवज ति मिच्छत्त-वारसक०-णवणोक० असंखेजभागहाणी० जह. अंतोमु०, उक्क. सगद्विदी। संखजभागहाणी० जहण्णुक्क० एगसमओ। सम्मत्तसम्मामि० ओघं। णवरि असंखेजभागहाणी. जह० एयसमओ, उक० सगहिदी। अवडिदं णत्थि । अणंताणु०चउक्क० असंखेजमागहाणी. जह० एगस०, उक्क० सगद्विदी। तिण्णिहाणी अवत्तव्वं ओघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मिच्छत्त०सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० असंखजभागहाणी० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी । संखञ्जमागहाणी. जहण्णुक० एयस० । सम्मत्त० असंखजभागहाणी. जह० एमस०, उक्क. सगद्विदी। संखेजभागहाणी. संखेजगुणहाणी० ओघं । अणंताणु०चउक्क. असंखेजभागहाणी जह० आवलिया जहण्णपरित्तासंखेजणूणा, उक्क० सगद्विदी । तिण्णि हाणी० ओघं। ६२६३. मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रियतिथंचके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। २६४. देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सभी प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तक जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषताहै कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए।आनतसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। यहाँ अवस्थित पद नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा तीन हानि और प्रवक्तव्यका काल ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य परीतासंख्यात कम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा तीन हानियोंका काल ओघके समान है। विशेषार्थ-देवोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है सो यह देवोंके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे जानना चाहिए। आनतादिकसे लेकर मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्ति ही होती है। किन्तु यदि यहाँ स्थितिकाण्डकघात होता है तो असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy