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________________ १७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती रदि-अरदि-सोग-इस्थि-पुरिस-णवंसयवेद० संखेजगुणवड्डी० जह• एगसमओ, उक्क० के समया। ___६ २९२. पंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपज्जत्ताणं छठवीसं पयडीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि असंखेजभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णवरि अणंताणु०च उक्क० असंखेजगुणहाणी अवत्तव्वं च णत्थि । संखेजभागहाणी. जहण्णुक्क० एयस० । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमसंखेजमागहाणी. जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । तिण्णि हाणी० ओघं। कि हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जो साधिक तीन पल्य कहा है इसका कारण यह है कि भोगभूमिमें यदि प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है तो उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि होती रहती है। इसलिये तीन पल्य तो ये हुए। तथा इसमें पूर्व पर्यायका अन्तमुहूर्तकाल और मिला देना चाहिये इस प्रकार तिर्यश्चगतिमें उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका साधिक तीन पल्य काल प्राप्त हो जाता है। तथा यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। कारण यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दीर्घकालीन असंख्यातभागहानि सम्यग्दृष्टि के ही बन सकती है। मिथ्याष्टिके तो इनका अन्तर्मुहूर्तके बाद स्थितिकाण्डकघात होने लगता है। पर वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मर कर तियचोंमें नहीं उत्पन्न होता और यहाँ कृतकृत्यवेदककी विवक्षा नहीं है । अतः जो जीव उत्तम भोगभूमिमें तिथंच हुआ और कुछ कालके बाद वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके जीवन भर उसके साथ रहा उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य पाया जाता है। पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद की संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है सो इसका कारण यह है कि जिसन भवके पहले समयमें परस्थानकी अपेक्षा संख्यातगुणवृद्धि की है और दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे संख्यातगुणवृद्धि की है वह एक आवलिके बाद कषायकी उक्त स्थितिका इन प्रकृतियों में दो समय तक संक्रमण करता है अतः उक्त प्रकृतियोंमें संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। ६२९२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका भंग पंचेन्द्रिय तियंचके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इसमें भी इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्य नहीं हैं। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ठकाल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा तीन हानियोंका काल ओषके समान है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनके सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। इन जीवोंके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती, इसलिये इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिका निषेध किया। तथा इसकी संख्यातभागहानका जघन्य और उस्कृष्ट काल एक समय कहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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