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________________ गा० २२ ] वडवणीए कालो १७३ २१. तिरिक्वेस छन्वीसं पयडीणं तिण्णिवड्डी अवट्ठिदमोघं । असंखेजभांगहाणी ० ० जह० एस ०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरेयाणि । दोहाणी० जहण्णुक० एगस० । णवरि अणंताणु० चउक० संखेजभागहाणी० असंखेज्जगुणहाणी० अवत्तव्व० ओघं । सम्मत - सम्मामिच्छत्ताणं सव्वपदा० ओघं । णवरि असंखेजभागहाणी ० जह० एगस ०, उक्क० तिष्णि पलि० देसूणाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतियस्स वत्तव्वं । णवरि छव्वीसं पयडीणं संखेजभागवड्डी० संखेजगुणवड्डी० जहण्णुक० एगसमओ । णवरि हस्स saat विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । विशेषार्थ — ओघ से मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । नरकमें भी यह काल इसी प्रकार बन जाता है, अतः इनके कालको प्रधके समान कहा है । उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय ओघ के समान यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि जो नरक में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त में सम्यग्दृष्टि हो जाता है और नरकसे निकलने के अन्तर्मुहूर्त काल पहले तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है उसके कुछ कम तेतीस सागर काल तक असंख्यात भागद्दानि देखी जाती है। तथा उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि यहाँ संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि संक्लेशक्षयसे ही होती है अतः इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है । तथा उक्त दो हानियाँ स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय ही होती हैं इसलिये इनका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त होता है । किन्तु अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानिके कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि नारकी जीव भी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं । और विसंयोजना में संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण प्राप्त होता है जो कि नरकमें भी सम्भव है अतः नरक में अनन्तानुबन्धीकी संख्यात भागहानिका काल ओके समान कहा है । तथा नरकमें अनन्तानुबन्धकी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यविभक्ति भी होती हैं । फिर भी इनके कालमें ओघसे कोई विशेषता नहीं है, अतः इनके कालको भी ओघके समान कहा है। अब शेष रहीं दो प्रकृतियाँ सो इनकी असंख्यात भागहानिके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष सब कथन ओघ के समान बन जाता है । किन्तु असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है। इसका खुलासा पहले के समान है । प्रथमादि नरकों में भी इसी प्रकार जानना चाहिये, किन्तु असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल सर्वत्र कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । 1 $ २१. तिचों में छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियों और अवस्थितका काल ओघके समान है । असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । दो हानियों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी संख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पद ओघ के समान हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिचत्रिक के कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसमें इतनी विशेषता और है Jain Education International "2 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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