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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हिदिविहत्ती ३ ४३. इस्थि-पुरिस-हस्स-रदीणमवहिदकालो कथमुक्करण अंतोमुहुत्तमेत्तो ? ण, कसायाणमंतोकोडाकोडिसागरोवममेहिदिमवाद्विदसरूवेण अंतोमुहुत्तं कालं वंधिय बंधावलियादिकंतकसायटिदिं पुव्वुत्तचदुण्हं पयडीणमुबरि अंतोषुहुत्तं संकामिदे इत्थि-परिसहस्स-रदीणमट्टिदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुकलंमादो । एमो अवविदकालो कत्थ गहिदो ? सण्णीसु । कुदो ? तत्थ इत्थि-परिस हस्स-रदोणं बंधगद्धाए बढ़त्तवलंभादो। बारसकसाय विशेषार्थ- यहाँ सोलह कषायोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल १९ समय बतलाया है। इसके लिये दो पर्यायोंका ग्रहण किया है, क्योंकि एक पर्यायकी अपेक्षा १९ भुजगार समय नहीं प्राप्त होते । ऐसा नियम है कि सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका परस्परमें संक्रमण होता है। इसके लिये यह व्यवस्था है कि जिस समय जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उसमें अन्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण होता है। चूंकि यहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोधकी भुजगार स्थितिके उत्कृष्ट कालको प्राप्त करना है अतः ऐसा एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीव लो जिसकी वर्तमान आयु एक आवलि और सत्रह समय शेष रही हो उसने पन्द्रह समयोंमें अनन्तानुबन्धी क्रोधको छोड़कर शेष पन्द्रह कषायोंकी स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ा बढ़ाकर बाँधी । पहले समयमें अनन्तानुवन्धी मानकी स्थितिको सत्तामें स्थित स्थितिसे बढ़ाकर बाँधा । दूसरे समयमें अनन्तानुबन्धी मायाकी स्थितिकोअनन्तानुबन्धी मानकी स्थितिसे बढ़ाकर बाँधा इत्यादि । तदनन्तर एक आवलि कालके व्यतीत हो जाने पर उसी क्रमसे इनका अनन्तानुबन्धी क्रोधमें संक्रमण किया। इस प्रकार भुजगारके पन्द्रह समय तो ये प्राप्त हुए । अब रहे चार समय सो सोलहवें समयमें अद्धाक्षयसे उसने अनन्तानुबन्धी क्रोधकी स्थितिको बढ़ाकर बाँध।। सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके साथ सब कषायोंकी स्थितिको बढ़ाकर बाँधा । इस प्रकार भुजगारके सत्रह समय तो एकेन्द्रिय या विकलत्रयके प्राप्त हुए । अब यह जीव मरकर एक विग्रहसे संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ, इसलिये उसने विग्रहकी अवस्थामें असंज्ञीके योग्य स्थितिको बढ़ कर बाँधा और दूसरे समयमें शरीर ग्रहण कर लेनेसे संज्ञी पञ्चन्द्रियके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधा । इस प्रकार भुजगार के १९ समय प्राप्त हुए। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदिके और नौ नोकभायोंके १६ भुजगार समय प्राप्त होते हैं। किन्तु नौ नोकषायोंके सम्बन्धमें इतनी विशेषता है कि सोलह कषायोंका अद्धाक्षयसे उत्तरोत्तर बढ़ाकर बन्ध करावे । तदनन्तर सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे स्थिति बढ़ाकर बन्ध करावे । पुनः एक आलि हो जानेपर इनका नौ पायोंमें सत्रह समयके द्वारा संक्रमण करावे। तदनन्तर इस जीवको संज्ञियोंमें उत्पन्न कराकर पर्वोक्त प्रकारसे दो भुजगार समय और प्राप्त करे । इस प्रकार नौ नोकषायोंके १६ भुजगार समय प्राप्त होते हैं। ६४३. शंका--स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका अवस्थित काल उत्कृष्ट रूपसे अन्तमुहूर्त कैसे प्राप्त होता है ? समाधान--नहीं, क्योंकि जब कोई जीव कषायोंकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिको अवस्थितरूपसे अन्तर्मुहूर्त कालतक बाँधकर पुनः बन्धावलिके व्यतीत होने पर उस स्थितिका पूर्वोक्त चार प्रकृतियोंमें अन्तर्मुहूर्त कालतक संक्रमण करता है तब उस जीवके स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी अवस्थितस्थितिविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है । शंका--यह अवस्थित काल कहाँ पर ग्रहण किया गया है ? समाधान--संज्ञियोंमें। शंका-यह अवस्थित काल संज्ञियोंमें ही क्यों ग्रहण किया गया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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