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________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ लियमिस्सभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० सव्वपदा भयणिज्जा । एवमणाहारि० । ___३६४. णाणाणुवादेण आभिणि सव्वपयडीणमसंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेससव्वपदा भयणिज्जा । एवं सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०. परिहार०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुक्कले०-सम्मादिहि-वेदग०-खइय दिहि त्ति । असण्णि० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डि-हाणी अवट्ठाणं णियमा अस्थि संखेज्जभागड्डिहाणी संखेज्जगुणववि-हाणो भयणिज्जा। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । तिण्णिहाणी भयणिज्जा। एवमभवसिद्धिय० । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० पत्थि । एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो। विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोगमें २६ प्रकृतियोंके सात पद होते हैं। जिनमें तीन ध्रुव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद होते हैं। जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय हैं। कुल भंग २७ होते हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोग यह सान्तर मार्गणा है, इसलिये इसमें सब पद भजनीय हैं। यहाँ २६ प्रकृतियोंके सात पद होते हैं, अतः इनके कुल भंग २१८६ होते हैं।' सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद होते हैं, अतः इनके कुल भंग ८० होते हैं। 'वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान आहारककाययोग आदि मार्गणाओंमें भी कथन करना चाहिये ।' इसका यह अभिप्राय है कि इन मार्गणाओंमेंसे जिसमें जितने पद हैं वे सब भजनीय हैं। यहाँ भंग भी तदनुसार जानना चाहिये। कार्मणकाययोगमें २६ प्रकृतियोंके सात पद हैं। जिनमें तीन ध्रव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद हैं जो सब भजनीय हैं। कुल भंग ८० होते हैं । संसारमें कार्मणकाययोग और अनाहारकअवस्थाका सहचर सम्बन्ध है, अतः अनाहारकोंका कथन कार्मणकाययोगके समान है। ६३६४. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे आभिनिबोधिकज्ञानियोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। शेष सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । असंज्ञियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि,असंख्यातभागहानि और अवस्थान नियमसे है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। तीन हानियां भजनीय हैं। इसीप्रकार के जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं। विशेपार्थ--आभिबोधिकज्ञानमें सब प्रकृतियोंके चार पद होते हैं जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय हैं । कुल भंग २७ होते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञान आदि मार्गणाओंमें भी जानना चाहिये । किन्तु पद विशेषोंको जानकर कथन करना चाहिये। असंज्ञियोंके २६ प्रकृतियोंके सात पद हैं। जिनमें तीन ध्रव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पंद हैं जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय हैं । कुल भंग २७ होते हैं। अभव्योंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं है। शेष २६ प्रकृतियोंका कथन असंज्ञियोंके समान है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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