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________________ २२] वडिपरूणाए भागाभागो २२७ $ ३६५. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण । ओघेण छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो। अवहि० संखेन्जदिमागो । असंखेजभागहाणि० संखेज्जा भागा । सेसपद विह० अणंतिम भागो। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणि० सव्वजी० केव० भागो ? असंखेजा भागा । सेसपदवि० असंखेज्जदिभागो । एवं तिरिक्ख एइंदिय-बादरेइंदिय०-बादरेइंदियपज्जत्तापजत्त सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत्तापजत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि-सुहुमवणप्फदि पञ्जत्तापज्जत्त-णिगोद-बादरणिगोद-सुहमणिगोदपज्जत्तापजत्त-कायजोगि०-ओरालि. ओरालि मिस्स०-कम्मइयणदुंस०-चत्तारिकसाय०-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद०अचक्खु० किण्ह-णील-काउ०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि० असण्णि- आहारि-अणाहारि त्ति । णवरि अभव० सम्मत्त०-सम्मामि० णत्थि। $ ३६६. आदेसेण णेरइय० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणिवि० संखेजा भागा। अवद्विदवि० संखेजदिभागो । सेसपदवि० असंखेजदिभागो । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणेरहय-सव्वपंचिंतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव सहस्सार-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय - पंचिं०पज्ज०-पंचिं० अपज्ज०-सव्वचत्तारिकायबादरवणप्फदिपत्तयसरीरपज्जत्तापज्जत्त--तस-तसपज्ज-तसअपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०. ६ ३६५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं। असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थित स्थितिविभक्तवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातबहुभाग हैं। तथा शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्त-भाग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यात भागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । शेष पद स्थितिविभक्ति वाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार तियेच, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, बादरनिगोद, बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगो, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्या वाले कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं है। ३६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभाग हैं। अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तियच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब चार स्थावरकाय, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और अपर्याप्त, बस, बस पर्याप्त, बस अपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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