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________________ गा० २२] वडिपरूवणाए भंगविचओ २२५ वणप्फदिपत्तेयपज्ज० असंखेज्जभागवड्डी० भयणिज्जा। ६३६२. बीइंदिय० असंखेज्जभागहाणी अवठ्ठाणं णियमा अस्थि । असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी भय णिज्जा । एवं सबविगलिंदियाणं । पंचिं०अपज्ज०-तसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।। ६३६३. जोगाणुवादेण ओरालि०मिम० छव्वीसपयडीणं असंखेज्जभागवड्डि. हाणी अवट्ठाणं णियमा अस्थि । संखेज्जभागवड्डि-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणी भयणिज्जा। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । वेउन्धियमिस्स० सव्वपयडीणं सधपदाणि भयणिज्जाणि । एवमाहार०. आहारमिस्स० अवगद० अकसा०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-उवसमसम्मत्त-सासाण.. सम्मामिच्छादिहि त्ति । णवरि जत्थ जत्तियाणि पदाणि णादव्वाणि । कम्मइय० ओरा किन्तु इतनी विशेषता है कि चार स्थावरकाय बादर पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके असंख्यातभागवृद्धि भजनीय है। ३६२. द्वीन्द्रियोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थान नियमसे है। असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं। इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय जीवोंके जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और बस अपर्याप्त जीवोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है। विशेषार्थ–एकेन्द्रियोंमें २६ प्रकृतियोंके पाँच पद होते हैं। इनमेंसे तीन ध्रुव और दो भजनीय हैं। कुल भंग नौ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद होते हैं। जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय पद हैं। कुल भंग २७ होते हैं । यह व्यवस्था एकेन्द्रियोंके अवान्तर भेदोंमें और पांचों स्थावरकायोंमें भी बन जाती है। किन्तु इसका एक अपवाद है। बात यह है कि चारों स्थावरकाय पर्याप्तक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तक इन पाँचोंमें २६ प्रकृतियोंका असंख्यातभागवृद्धि पद भी भजनीय है। इस प्रकार यहाँ भजनीय पद तीन हो जाते हैं, अतः कुल २७ भंग प्राप्त होते हैं । विकलेन्द्रियोंमें २६ प्रकृतियोंके छह पद होते हैं। जिनमें दो ध्रुव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन एकेन्द्रियोंके समान है। अतः एकेन्द्रियोंके इन दो प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो २७ भंग पहले बतलाये हैं वे ही यहाँ भी समज्ञना चाहिये। ३६३. योग मागणाके अनुवादसे औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थान नियमसे हैं। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ जितने पद हो उनके अनुसार जानना । कार्मणकायोगियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। किन्तु इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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