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________________ ૨૨૪ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६३६१ इंदियाणुवादेण एइंदिएसु छब्बीसं पयडीणं असंखेज्जमागवड्डि हाणि-अवडिद० णियमा अस्थि । संखेज्जभागहाणि'-संखेज्जगुणहाणी भयणिज्जा, तसेहि आढतहिदिकंडयाणमेइंदिएसु पदमाणाणं तसरासिपडिमागत्तादो। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसतिण्णिहाणीओ भयणिज्जाओ। एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमेहंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-पुढवि० - बादरपुढवि० - वादरपुढवि०पज्जत्तापज्जत-सुहमपुढाव-सुदुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ-बादरआउ० - बादर आउपज्जत्तापज्जत-सुहुमाउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-चादरतेउ०-बादरतेउपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ० बादरवाउ०-बादरवाउपज्जत्तापज्जत्त. सुहमवाउ०-सुहमवा उपज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपजत्ता पज्जत्त-सुहुमवणप्फदि०-सुहुमवणफदिपज्जत्तापज्जत्त-णिगोद - बादरणिगोद - बादर णिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहमणिगोद-सुहुमणिगोदपज्जचापज्जत्त-बादरवणप्फदिपतेय०वादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ता ति । णवरि चत्तारिकाय-बादरपज्जत-बादर मूलमें बतलाये ही हैं। अब रहीं शेष छह प्रकृतियाँ इनमेंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके पाँच पद होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नौ पद होते हैं। इन दोनों स्थानोंमें एक ध्रुव और शेष भजनीय पद हैं। भंग क्रमसे ८१ और ६५६१ होते हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके २३ प्रकृतियोंके तीन भंग हैं जो आनतादिकके समान है। शेष रहीं पाँच प्रकृतियाँ सो इनमेंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके चार पद और सम्यक्त्वके तीन पद होते हैं। इनमेंसे एक ध्रुवपद और शेष भजनीय पद हैं । भंग क्रमशः २७ और ९ होते हैं। $३६१ इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पद नियमसे हैं तथा संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं, क्योंकि जो त्रसपर्यायमें स्थितिकाण्डकघातका आरम्भ करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए हैं उनका प्रमाण सराशिके प्रतिभागसे रहता है। अतः उक्त दो पदोंको एकेन्द्रियों में भजनीय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है, शेष तीन हानियाँ भजनीय हैं। इसी प्रकार बादर एकन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकपर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोदपर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और अपर्याप्त जीबोंके जानना। १ ता. प्रतौ अस्थि । असंखेज्जभागहाणी इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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