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________________ गा० २२] वहिपरूवणाए भंगविचो २२३ तिरिक्ख-मणुस-मणुसपज्ज०-मणुसिणी-देव-भवणादि जाय सहस्सार०-पंचिंदियपंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज-०पंचमण-पंचवचि०-वेउन्वियकाय ०-इत्थि-पुरिस-विहंगणाणि०-चक्खुदंस०-तेउ-पम्म०-सणि त्ति । मणुसअपज्ज. सव्वपयडीणं सव्वपदाणि भयाणज्जाणि । ३६०. आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. असंखेज्ज. भागहाणी णियमा अस्थि । संखेज्जभागहाणी भयणिज्जा । सिया एदे च संखेज्जभागहाणिविहत्तियो च । सिया एदे च संखेज्जभागहाणिविहत्तिया च । धुवपदेण सह तिण्णि भंगा। सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्काणमसंखज्जमागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति मिच्छत्त-बारसक० णवणोक. आणदभंगो । सम्मामि० मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-अणंताणु०चउक० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंग चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। विशेषार्थ-नारकियोंमें २२ प्रकृतियोंके सात पद हैं। जिनमें दो ध्रुव और पाँच भजनीय हैं। कुल भंग २४३ होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके नौ पद हैं। जिनमें दो ध्रुव और सात भजनीय हैं । कुल भंग २१८७ होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दस पद हैं। जिनमें एक ध्रुव और नौ भजनीय हैं। कुलभंग १९६८३ होते हैं। मूलमें सब नारको आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इसका यह मतलब है कि इन मागणाओंमें २६ प्रकृतियोंके दो पद ध्रुव हैं और शेष भजनीय हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक पद ध्रुव और शेष भजनीय हैं। तदनुसार जिस मार्गणामें जिस प्रकृतिके जितने पद हों उनका विचार करके भंग ले आने चाहिये। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके २६ प्रकृतियोंके सात पद हैं पर वे सब भजनीय हैं, अतः इनके कुल भंग २१८६ होते हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद हैं । ये भी सब भजनीय हैं, अतः इनके कुल भंग ८० होते हैं। ६३६०. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। संख्यातभागहानि भजनीय है। कदाचित् असंख्यातभागहानिवाले जीव होते हैं और संख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाला एक जीव होता है। कदाचित् असंख्यातभागहानिवाले जीव होते हैं और संख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले नाना जीव होते हैं। इनमें ध्रुवपदके मिला देनेपर तीन भंग होते हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानि नियमसे है, शेष पद भजनीय हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग आनतकल्पके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानि नियमसे है, शेष पद भजनीय हैं। विशेषार्थ-आनतसे लेकर उपरिम अवेयक तकके जीवोंके २२ प्रकृतियोंके तीन भंग तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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