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________________ २२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्तौ३ ३५८. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । ओषेण छब्बीसं पयडीणमसंखज्जभागवड्डि-हाणि-अवडिदाणि णियमा अस्थि । कुदो ? अणंतेसु एइंदिएसु उवलब्भमाणत्तादो। सेसपदा भयणिज्जा । कुदो ? तसेसु संभवादो। भंगा वत्तव्वा । सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। भंगा वत्तव्वा । एवं तिरिक्ख-कायजोगि-ओरालियकायजोगि-णqसयवेदचत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद०-अचक्खुदंस०-किण्ह-णील-काउ०-भवसि०मिच्छादिहि-आहारि ति। ३५६. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडोणं असंखेज्जभागहाणी अवद्विदं णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। सम्मत्त० सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदिय ६. ३५८. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे विचार करने पर निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित नियमसे हैं, क्योंकि ये पद अनन्त एकेन्द्रियोंमें पाये जाते हैं। शेष पद भजनीय हैं, क्योंकि शेष पद त्रसोंमें संभव हैं। भंग कहने चाहिये। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। भंग कहने चाहिये । इसी प्रकार सामान्य तिर्यच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मोहनीयकी २८ प्रकृतियाँ हैं। इनमेंसे २२ प्रकृतियोंके आठ पद हैं जिनमें तीन ध्रव और पाँच भजनीय हैं । मूलमें ध्रुवपद गिनाये ही हैं। इससे भजनीय पदोंका ज्ञान अपने आप हो जाता है। पाँच भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल भंग २४२ होते हैं। इनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर २२ मेंसे प्रत्येक प्रकृतिके कुल भंग २४३ होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके नौ पद हैं। इनमें तीन ध्रुव और छह भजनीय हैं। छह भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल भंग ७२८ होते हैं। इनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर अनन्तानुबन्धी चतुष्कमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके कुल भंग ७२९ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके कुल दस पद हैं। इनमें एक ध्रुव और नौ भजनीय हैं। नौ भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल भंग १९६८२ होते हैं और इनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर सब भंग १९६८३ होते हैं। तियञ्च आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिये । इसका यह मतलब है कि इन मार्गणाओंमें २६ प्रकृतियोंके तीन ध्रुव पद हैं और शेष भजनीय पद हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक ध्रुव पद है और शेष भजनीय । अब किस मार्गणामें किस प्रकृतिके कुल कितने पद हैं इसका विचार करके अलग अलग भंग ले आना चाहिये । भंग लानेका तरीका यह है कि जहाँ जितने भजनीय पद हों उतनी जगह तीन रख कर परस्पर गुणा करनेसे कुल भंग आते हैं। इनमेंसे एक कम कर देने पर भजनीय पदोंके भंग होते हैं । और भजनीय पदोंके भंगोंमें एक मिला देनेपर कुल भंग होते हैं। ६३५९. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितपद नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jajnelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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