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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ भागो। सभ्मत्त-सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०. पज्ज०-पंचिं०तिरि०जोणिणी-देव०-भवणादि जाव सहस्सार-पंचिंदिय-पंचि०पज०-तस-तसपञ्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-वेउव्विय०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । १३७. पंचिं तिरि०अपज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० तिण्हं पदाणं णेरइयाणं भंगो । सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पदर० केव० १ सव्वद्धा । एवं वियलिंदिय-पजत्तापञ्जत्त. पंचिं०अपज० बादरपुढविपज्जबादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज० - बादरवाउपज्ज० बादरवणष्फदिपत्तेय'पज्ज०-तसअपज्ज-विहंगणाणि त्ति । अपेक्षा ओघके समान भंग है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेवाले, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-नारकियोंके एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जो काल बतला आये हैं उसे देखते हुए यहाँ नाना जीवों की अपेक्षा उनका सर्वदा काल प्राप्त होता है अतः यहाँ उनका सर्वदा काल बतलाया है। किन्तु भुजगार स्थितिकी यह बात नहीं है। नाना जीवोंकी अपेक्षा भी यदि इसके उपक्रम कालका विचार किया जाता है तो उसका जघन्य प्रमाण एक समय और उत्कृष्ट प्रमाण प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है इसलिये यहाँ इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कके पदोंका भी यथायोग्य विचार कर लेना चाहिये। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवाले जीव नरकमें भी सर्वदा पाये जाते हैं। अब रहे शेष पवाले जीव सो उनका उपक्रम कालके अनुसार पाया जाना सम्भव है। ओघमें भी यही बात है। अतः सम्य. क्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके कालको ओघके समान बतलाया। आगे जो और मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान बतलाया। ६१३७. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदवाले जीवोंका भंग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है? सब काल है। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंके अल्पतर आदि तीन पदोंका काल नारकियोंके समान बन जाता है इसलिये यहाँ इनके कथनको नारकियोंके समान बतलाया है । यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थिति नहीं होती यह स्पष्ट ही है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक अल्पतर स्थिति ही होती है। साथ ही यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव नियमसे पाये जाते हैं, इसलिये इसका काल सर्वदा बतलाया है। आगे जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है अत: उनके कालको पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । १ ता. प्रतौ 'अपज्ज.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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