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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकाला ६६ * उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। १३४. कारणं सुगमं । एवं जइवसहाइरियदेसामासियसुत्तस्थपरूवणं कादूण संपहि तेण सूचिदअत्थस्सुच्चारणमस्सिदूण कस्सामो। * १३५. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसे० । तत्थ ओघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० भुज-अप्पदर०-अवडि. केवचिरं ? सम्बद्धा। अणंताणु० एवं चेव । णवरि अवत्तव्य. केवचिरं ? जह• एगसमो, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० केवचिरं० १ सव्वद्धा। सेसपदवि० केवचिरं ? जह ऐगस०, उक्क. आवलि० असंखे०भागो। एवं तिरिक्ख०-कायजोगि०-ओरालिय०. णस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले० भवसि०-आहारि त्ति । १३६. आदेसेण णेरइएसुमिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पद०-अवढि० केव० ? सन्नद्धा । भुज० ज० एगस०, उक्क० श्रावलि. असंखे०भागो। अणंताणु०चउक्क० अप्पदर०-अवट्टि० मिच्छत्तभंगो। भुज०-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही बतलाया है। अब यदि नाना जीव एक साथ अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थिति को प्राप्त हों और दूसरे समयमें अन्य जीव इस पदको न प्राप्त हों तो इसका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। यही कारण है कि अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थितिवालोंका प्रमाण असंख्यात होते हुए भी नाना जीवोंकी अपेक्षा भी इसका जघन्य काल एक समय बतलाया है। * उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६ १३४. कारण सुगम है। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके देशामर्षक सूत्रके अर्थका कथन करके अब उसके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका उच्चारणाके आश्रयसे कथन करते हैं। $ १३५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भ है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है। शेष पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६१३६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कवाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सव काल है। भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यास्वकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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