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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती १३१. कुदो ? णाणाजीवप्पणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पदरहिदिविहत्तियाणं तिसु बि कालेसु विरहाभावादो। * सेसाणं कम्माणं विहत्तिया सव्वै सव्वद्धा । $ १३२. कुदो, अणंतरासीसु भुजगार-अवडिद-अप्पदराणं विरहाभावादो । *णवरि अर्णताणुबंधीणमवत्तव्वहिदिविहत्तियाणं जहणणेण एगसमत्रो। $ १३३. कुदो, अवत्तव्वं कुणमाणजीवाणमाणंतियाभावादो। ण सम्मत्तअप्पदरविहत्तिएहि वियहिचारो;सम्मत्तप्पदरस्सेव अणंताणुबंधीणमवत्तव्वस्स सगपाओग्गगुणद्धाएसम्वसमए असंभवादो। ६१३१. क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षासे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिको करनेवाले जीवोंका तीनों ही कालोंमें विरह नहीं होता। * शेष कर्मोंकी सब स्थितिविभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। १३२ क्योंकि शेष कर्मोंकी भुजगार, अवस्थित और अल्पतर स्थितिविभक्तियों को करनेवाली जीवराशि अनन्त है, अतः उनका कभी विरह नहीं होता। * किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है। ६१३३. क्योंकि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको करनेवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त नहीं है। यदि कहा जाय कि इस तरह तो सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके साथ व्यभिचार हो जायगा, क्योंकि इनका प्रमाण भी अनन्त नहीं है अतः इनका भी विरह पाया सो बात नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिके योग्य सब काल है उस प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिके योग्य सब काल नहीं है अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सर्वदा पाया जाना सम्भव नहीं है । विशेषार्थ-यहाँ यह बतलाया है कि चूँ कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालांका प्रमाण अनन्त नहीं है अतः उनका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय बन जाता है। इस पर यह शंका की गई है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका भी प्रमाण अनन्त नहीं है परन्तु उनका काल सर्वदा बताया है अतः उस कथनके साथ इसका व्यभिचार प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवाले जीव भी असंख्यात हैं और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीव भी असंख्यात हैं । अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी प्रवक्तव्य स्थितिवाले जीव अनन्त नहीं होनेसे इनका जघन्य काल यदि एक समय माना जाता है तो 'अनन्त नहीं होनेसे यह हेतु व्यभिचरित हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवाले जो कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवालोंके विपक्ष हैं उनमें भी यह हेतु चला जाता है। वीरसेन स्वामी ने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि ये दोनों विभक्तिवाले जीव असंख्यात है फिर भी सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका सर्वदा जाता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिका एक जीवकी अपेक्षा जा जघन्य काल और उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है उसे देखते हुए उसका सर्वदा पाया जाना सम्भव है। परन्तु यह बात अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिकी नहीं है क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा काल बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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