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________________ १६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती। २८२. तं जहा-दंसणमोहक्खवणाए अण्णस्थ वा पलिदोषमस्स संखेजमागमेत्त. द्विदि कंडए धादिदे संखेजभागहाणीए जहण्णेण एगसमओ होदि । ___ * उक्करसेण जहएणमसंखेजयं तिरूवूणयमेत्तिए समए । ६२८३. तं जहा-दसणमोहक्खवणाए मिच्छत्तस्स चरिम डिदिकंडए हदे उदया. वलियाए उकस्ससंखेजमेत्तणिसेगट्टिदीसु सेसासु संखेजभागहाणीए आदी होदि । तत्तो पहुडि ताव संखेजभागहाणी होदि जाव उदयावलियाए दो णिसेगद्विदीओ तिसमयकालाओ द्विदाओ ति तेण जहण्णपरित्तासंखेजयम्मि तिरूवूणम्मि जत्तिया समया तत्तियमेत्तो संखेजमागहाणीए उकस्सकालो त्ति भणिदं । . * संखेज्जगुणहाणि-असंखेजगुणहाणीणं जहएणुक्कस्लेण एगसमओ। $ २८४. तं जहा-दंसणमोहक्खवणाए पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मप्पहुडि जाव दूरावकिट्टिविदो चेदि ताव एत्यंतरे पदमाणद्विदिखंडएसु पदंतेसु संखेजगुणहाणी होदि । तिस्से वि कालो एगसमओ चेव, चरिमफालिं मोत्तण अण्णत्थ संखेजगुणहाणीए अभावादो । संसारावस्थाएं वि संखेजगुणहाणीए एगसमओ चेव होदि, सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं संखेजेसु भागेसु घादिदेसु घादिजमाणेसु तस्स द्विदिखंडयस्स चरिमफालीए चेव संखेजगुणहाणीए उवलंभादो। दूरावकिट्टिट्टिदिष्पहुडि जाव चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालि ति एत्यंतरे द्विदिखंडएसु पदमाणेसु असंखेजगुणहाणी होदि । एदिस्से वि कालो एगसमओ; द्विदिखंडयाणं चरिमफालीसु चेव असंखेजगुणहीणत्तवलंभादो। ___६२८२, जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें या अन्यत्र पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकके घात करने पर संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय होता है। * उत्कृष्ट काल तीन कम जघन्य परीतासंख्यातके जितने समय हों उतना है। ६२८३. जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका घात करने पर उदयावलिमें निषेकस्थितियोंके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण शेष रहनेपर संख्यात भागहानिका प्रारम्भ होता है। यहाँसे लेकर तीन समयकाल स्थितिवाले दो निषेकोंके शेष रहनेतक संख्यातभागहानि होती है। अतः तीन कम जघन्यपरीतासंख्यातमें जितने समय हों उतना संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल है ऐसा कहा है। ® मिथ्यात्वकी संख्यागुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट. काल एक समय है। ६२८४. जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें पल्यप्रमाण स्थितिसत्कमसे लेकर दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक इस अन्तरालमें प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंके पतन होने पर संख्यातगुणहानि होती है, उसका भी काल एक समय ही है, क्योंकि अन्तिम फालिको छोड़कर अन्यत्र संख्यातगुणहानि नहीं होती है । संसार अवस्थामें भी संख्यातगुणहानिका काल एक समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि सत्तरकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितियोंके संख्यात बहुभागके घात होते हुए घात होनेवाले काण्डकोंमें उस स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिमें ही संख्यातगुणहानि पाई जाती है। तथा दुरापकृष्टि स्थितिसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालितक इस बीच स्थितिकाण्डकके पतनमें असंख्यातगुणहानि होती है। इसका भी काल एक समय है, क्योंकि स्थिति. काण्डकोंकी अन्तिम फालिमें ही असंख्यातगुणहानि पाई जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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