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________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए कालो १६७ कादण पुन्वकोडाउअमणुस्सेसुप्पजिय मणुस्साउअम्मि अंतोमुहुत्ते गदे संकिलेसं पूरेदूण भुजगारढिदिबंधं गदो। तम्हा तेवढिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तेण सादिरेयमसंखेजभागहाणीए उकस्सकालो होदि । तिपलिदोवमिएसु उप्पाइय तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं किण्ण गहिदं ? अप्पदरस्स कालो उक्कस्सओ होदि एत्तिओ णासंखेजभागहाणीए; तिण्णि पलिदोवमाणि देषणाणि असंखेजभागहाणीए गमिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे आउए पढमसम्मत्तमुप्पाएंतेण संखेजभागहाणीए कदाए असंखेजभागहाणीए पकंताए विणासप्पसंगादो। २८१. तेवद्विसागरोवमसदमंतोमुहुत्तेण सादिरेयमिदि जं वुत्तं तं थोरुचएणवुत्तमिदि तण्ण घेत्तव्वं । पुणो कथं घेप्पदि त्ति वुत्ते वुच्चदे-भोगभूमोए वेदयपाओग्गदीहुव्वेल्लणकालमत्ताउए सेसे पढमसम्मत्तं घेत्तूण पुणो अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तं गंतूण अप्पदरेण पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तकालं गमिय पुणो अवसाणे वेदगसम्मत्तं घेत्तण देवेसुपन्जिय पुव्वं व तेवहिसागरोवमसदं भमिय भुजगारे कदे पलिदोवमस्स असंखेजमागेणमहियतेवहिसागरोवमसदमसंखेजभागहाणीए उकस्सकालो। * संखेजभागहाणीए जहएणेण एगसमो। कोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ मनुष्यायुमेंसे अन्तर्मुहूर्त कालके व्यतीत होने पर संक्लेशको प्राप्त होकर भुजगारस्थितिका बन्ध किया, अतः असंख्यातभागहानिका अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सौ त्रेसठ सागर उत्कृष्ट काल होता है। शंका-तीन पल्य प्रमाण आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न कराके असंख्यातभागहोनिका उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर क्यों नहीं ग्रहण किया है ? समाधान-यह ठीक है कि इस प्रकार अल्पतर स्थिति विभक्तिका इतना उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । पर इससे असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि कुछ कम तीन पल्य असंख्यातभागहानिके साथ व्यतीत करके पुनः आयुके अन्तर्महूर्त प्रमाण शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवालेके संख्यातभागहानि होने लगती है अतः प्रारम्भ की गई असंख्यातभागहानिका विनाश प्राप्त होता है। ६२८१. दूसरे संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जो अन्तमहूर्त अधिक एक सौ त्रेसठ सागर कहा है वह स्थूल रूपसे कहा है अतः उसका प्रहण नहीं करना चाहिये। शंका-तो फिर कौनसे कालका किस प्रकार ग्रहण करना चाहिये ? समाधान-भोगभूमिमें वेदकके योग्य दीर्घ उद्वलना कालप्रमाण आयुके शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अल्पतर स्थितिविभक्तिके साथ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको व्यतीत कर के पुनः अन्तमें वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके और देवोंमें उत्पन्न होकर पहलेके समान एक सौ त्रेसठ सागर काल तक परिभ्रमण करके भुजगारस्थितिविभक्तिके करने पर असंख्यातभागहानिका पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। * मिथ्यात्वकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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